________________
XXII
कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् वाले धूर्त नरदत्त को प्राणदण्ड से मुक्त करवा देना भी उसकी क्षमाशीलता का प्रमाण है। वह मित्रवत्सल भी है, मित्रता का निर्वाह करना उसे भलीभाँति आता है। कौमुदी के प्रति उसकी निम्नलिखित उक्ति उसकी मित्रवत्सलता को द्योतित करती है
सुखाकरोति संयोगस्तथा न तव कौमुदी।
मैत्रेयस्य परित्यागो यथा दुःखाकरोति माम्।। ४/७ अपने प्रियमिलन को वह मित्र मैत्रेय के अभाव में व्यर्थ समझता है'प्रियसम्पर्को वृथा मे मैत्रेयं विना।'
मित्रानन्द नीतिमार्गानुसारी है और विपत्तिग्रस्त होने पर भी नैतिकता का साथ नहीं छोड़ता। आश्रम में अपने स्वागत में कुलपति द्वारा पशुबलि की बात सुनकर वह अत्यन्त खिन्न हो जाता है, क्योंकि वह यज्ञादि अनुष्ठानों में पशुबलि को अत्यन्त गर्हित और अनैतिक कर्म मानता है। उसकी दृष्टि में वे सभी शास्त्रकार, ऋषिगण
और सामान्य जन पाखण्डी हैं जो इसका विधान, समर्थन और पालन करते हैं। मित्रानन्द अत्यन्त धैर्यवान् भी है। उसे यह परिज्ञान है कि अधीर होकर विषाद
और शोक करने से भाग्य को नहीं बदला जा सकता- 'सत्यं विषादशोकाभ्यां न दैवं परिवर्त्तते।' इसीलिए वह सभी सङ्कटों का अत्यन्त धैर्यपूर्वक सामना करता है।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि मित्रानन्द एक उत्कृष्ट और गुणवान् नायक है।
कौमुदी- मध्यमकुलोत्पन्ना कौमुदी इस प्रकरण की मन्दगोत्रोत्पन्न किन्तु उकृष्ट आचरण वाली नायिका है। वह वरुणद्वीपस्थ प्रशान्तविरोध नामक आश्रम के कुलपति घोरघोण की पुत्री है। धूर्त पिता की पुत्री होते हुए भी उसमें स्त्रीसुलभ सभी गुण निहित हैं। वह अत्यन्त सरलहृदया भोली-भाली युवती है। छल-प्रपञ्च से तो वह सर्वथा रहित है— 'वननिवासप्रसादेन मुग्धा खल्वहं न विचित्रभणिती: जानामि'। इसीलिए आश्रम के दूषित वातावरण में उसका दम घुटता है। कौमुदी अनन्य सुन्दरी भी है। उसका अङ्ग-अङ्ग लावण्य से परिपूर्ण अतएव इन्द्रियों को आह्लादित करने वाला है
गात्रं सन्नतगात्रि! नेत्रसुखदं निःश्वासपूरांहतिनसाऽऽह्लादकरी रदच्छदसुधा जिह्वाऽतिसौहित्यकृत्। नादः किन्नरकण्ठि! कर्णसुखदो वक्षोजलक्ष्मीरियं वक्षः प्रीणयते मृगाक्षि! वद ते किं नेन्द्रियाणां मुदे।।३/७
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org