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________________ भूमिका चतुर्थ अङ्क - कौमुदी और मित्रानन्द योजनानुसार रात्रि में ही आश्रम से भागकर सिंहलद्वीप की राजधानी रङ्गशालापुरी पहुँच जाते हैं। वहाँ चोर का पीछा करने वाले सैनिकों के भय से लोगों की भगदड़ देखकर दोनों समीपस्थ कात्यायनी मन्दिर में प्रविष्ट हो जाते हैं । नगररक्षक कालपाश और उसके अनुचर चोर को खोजते हुए मन्दिर में आते हैं और दोनों को चोर समझकर पकड़ लेते हैं। कालपाश अपने अनुचरों को उन्हें प्रातः काल राजसभा में प्रस्तुत करने का आदेश देकर चला जाता है। पञ्चम अङ्क — रङ्गशालापुरी में युवराज लक्ष्मीपति के नगरागमन के उपलक्ष्य में उत्सव की तैयारी चल रही है। उसी दिन कौमुदी एवं मित्रानन्द को राजा विक्रमबाहु के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। दोनों की सौम्य आकृति देखकर और प्राप्त प्रमाणों के आधार पर राजा उन्हें चोर मानकर दण्ड देने हेतु तैयार नहीं होता है, किन्तु कौमुदी के प्रति कामासक्त अमात्य कामरति जिस किसी प्रकार राजा को फुसलाकर मित्रानन्द को मृत्युदण्ड का आदेश दिलवा देता है। तभी चेटी आकर सूचना देती है कि युवराज को साँप ने काट लिया है और वे मूर्च्छित हो गये हैं। सुअवसर देखकर मित्रानन्द राजा की आज्ञा पाकर विषापहरण मन्त्र का प्रयोग कर युवराज को जीवित कर देता है जिससे प्रसन्न होकर राजा मित्रानन्द को दण्डमुक्त कर देता है और अमात्य को उसका समुचित सत्कार करने का आदेश देकर चला जाता है। XIX षष्ठ अङ्क - मैत्रेय भटकता हुआ रत्नाकरराज्य की सीमा में प्रविष्ट हो जाता है जहाँ के सैनिक उसको शत्रु का गुप्तचर समझकर पकड़ लेते हैं और सामन्त विजयवर्मा के सम्मुख ले जाते हैं। विजयवर्मा शत्रु राजा चक्रसेन के साथ युद्ध में अत्यधिक घायल होकर पड़ा हुआ है, अतः वह क्रोधावेश में विना विचार किये ही उस तथाकथित शत्रु के गुप्तचर के वध का आदेश दे देता है, परन्तु मैत्रेय द्वारा महान् उपकार की प्रतिज्ञा करने पर उसको मुक्त कर देता है । पश्चात् मैत्रेय वरुणद्वीप में सिद्ध से प्राप्त औषध के लेपन से तत्क्षण विजयवर्मा के सम्पूर्ण व्रण को ठीक कर देता है। इससे प्रसन्न होकर विजयवर्मा क्षमायाचनापूर्वक उसको अपना मित्र बना लेता है। उधर सिंहलद्वीप का अमात्य कामरति, जो कौमुदी पर आसक्त है, मित्रानन्द की हत्या करवाने हेतु उसे गुप्तरीति से विजयवर्मा के समीप भेज देता है। विजयवर्मा यक्षराज को मित्रानन्द की बलि प्रदान करते हेतु मैत्रेय से अनुरोध करता है, किन्तु मैत्रेय मित्रानन्द को परिवर्तित वेष में भी पहचान लेता है और गले लगाकर रोने लगता है। उन दोनों का सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्ञात होने पर विजयवर्मा मित्रानन्द से क्षमायाचना करता है और युद्धबन्दी बनाकर लायी गयी सुमित्रा से विवाह करने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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