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XVIII
कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् करता है और पुत्री कौमुदी का विवाह मित्रानन्द से करने की घोषणा करता है। अन्त में पाशपाणि के आगमन की सूचना पाकर कुलपति अपने अनुचरों को दोनों अतिथियों की सेवा का आदेश देकर चला जाता है।
द्वितीय अङ्क- उस द्वीप में भ्रमण करते समय मित्रानन्द और मैत्रेय को किसी के कराहने की ध्वनि सुनायी देती है। मन्दिर के पीछे जाकर वे देखते हैं कि वहाँ एक सिद्ध (देवयोनिविशेष) पीड़ा से छटपटा रहा है, जिसको पाशपाणि ने पकड़ कर वृक्ष में कील से ठोक दिया था। दोनों दयाचित्त होकर सिद्ध को बन्धनमुक्त कर देते हैं। सिद्ध दोनों के प्रति कृतज्ञता प्रकट कर और भविष्य में प्रत्युपकार का वचन देकर अतिशीघ्र वहाँ से चला जाता है। पाशपाणि को जब ज्ञात होता है कि सिद्ध को मित्रानन्द और मैत्रेय ने मुक्त कर दिया है तो वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर दोनों को मारने हेतु उद्यत होता है, किन्तु कुलपति के अनुज गजपाद द्वारा बतलाए जाने पर कि मित्रानन्द कुलपति का जामाता है, पाशपाणि उन दोनों को मुक्त कर देता है। तदनन्तर गजपाद द्वारा कौमुदी-मित्रानन्द का विवाह स्वयं कराने की प्रार्थना सुनकर पाशपाणि मित्रानन्द को कल्पलता नाम की जादुई माला देकर उसको विवाहार्थ पर्णशाला में ले जाने का आदेश देता है।
तृतीय अङ्क- उद्यान में कौमुदी के प्रति प्रेमासक्त मित्रानन्द और उसका मित्र मैत्रेय कौमुदी के सौन्दर्य की चर्चा करते हुए उसका अन्वेषण करते हैं। कौमुदी भी लताकुञ्ज में सखी कुन्दलता के साथ मित्रानन्द के विषय में ही चर्चा कर रही होती है। मित्रानन्द और मैत्रेय छिपकर दोनों की बातें सुनते हैं। अनन्तर सम्मुख होने पर कौमदी उन्हें बतलाती है कि इस आश्रम के कुलपति सहित सभी तपस्वी कपटी हैं जो छद्मवेष धारण कर यहाँ आने वाले सभी व्यापारियों को कपटजाल में फंसाकर पहले उनका विवाह उससे (कौमुदी से) करवा देते हैं और बाद में धोखे से उनकी हत्या करके उनका सम्पूर्ण धन हड़प लेते हैं। यह सुनकर दोनों के मन में कौमुदी के प्रति अविश्वास उत्पन्न होने की आशङ्का से कुन्दलता उन्हें कौमुदी के निष्कपट होने का विश्वास दिलाती है। उसके बाद कौमुदी और मित्रानन्द विवाह के पश्चात् रात्रि में चुपचाप सिंहलद्वीप भागने का निश्चय कर लेते हैं। सायंकाल कुलपति द्वारा विवाह सम्पन्न करवाने के पश्चात् मित्रानन्द कौमुदी के निर्देशानुसार कुलपति से यौतक (दहेज) रूप में विषापहरणमन्त्र की शिक्षा देने का अनुरोध करता है। कुलपति विषवैद्य जाङ्गुलीदेवी का आह्वान कर मित्रानन्द को मन्त्र की शिक्षा दिलवाते हैं। अन्त में वृद्धा तापसी गन्धमूषिका कौमुदी को आदेश देती है कि मित्रानन्द को पर्णशाला में ले जाये।
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