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XIV
कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् हेतु विश्वेश्वर कवि ने उनके समक्ष दो समस्याएँ पूर्ति हेतु रखीं- प्रथम व्यासिद्धा
और द्वितीय शृङ्गाग्रेण। प्रथम समस्या व्यासिद्धा की पूर्ति महामात्य कपर्दी ने की जिसका उल्लेख प्रबन्धचिन्तामणि में भी किया गया है। दूसरी समस्या की पूर्ति रामचन्द्र ने इस प्रकार की
त्वं नो गोत्रगुरुस्तवेन्दुरधिपस्तस्यामृतं तत्करे तेन व्याधशरातुरां मम प्रियामेनां समुज्जीवय। इत्युक्ते मृगलाञ्छनस्य हरिणे कारुण्यमाजल्पतः
शृङ्गाग्रेण मृगस्य पश्य पतितं नेत्राम्बु भूमण्डले।।' अर्थात्, “तुम हमारे कुलगुरु हो, चन्द्रमा तुम्हारा स्वामी है, अत: तुम उसके अमृतमय हाथों (किरणों) से शिकारी के बाणप्रहार से मृतप्राय मेरी प्रिया को जीवित करवा दो। इस प्रकार चन्द्रमा में बैठे हुए मृग से अपनी प्रिया मृगी के प्राणदान हेतु कारुणिक प्रार्थना करने वाले मृग की आखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी।" रामचन्द्र द्वारा तत्क्षण ही इस समस्यापूर्ति को सुनकर विश्वेश्वर कवि अत्यन्त प्रसन्न हुए।
महाकवि रामचन्द्र न केवल साहित्यशास्त्र में अपितु व्याकरण और न्यायशास्त्र में भी पारङ्गत थे। अपने नाटक रघुविलास की प्रस्तावना में उन्होंने स्वयं के लिए 'त्रयीविद्याचणम्' उपाधि का प्रयोग किया है- “विद्यात्रयीचणमचुम्बितकाव्यतन्द्रं कस्तं न वेद सुकृती किल रामचन्द्रम्।" यहाँ विद्यात्रयी से वेद का ग्रहण न होकर व्याकरण, न्याय और साहित्यविद्या का ग्रहण होता है, क्योंकि जैन आचार्य होने के कारण रामचन्द्र का वेद से कोई सम्बन्ध नहीं था। नाट्यदर्पण की विवृत्ति के अन्त में भी वे लिखते हैं
शब्दलक्ष्मप्रमालक्ष्मकाव्यलक्ष्मकृतश्रमः ।
वाग्विलासस्त्रिमार्गो नौ प्रवाह इव जाहृजः।।२ . महाकवि रामचन्द्र की साहित्यशास्त्रज्ञता का प्रमाण तो नाट्यदर्पण, कौमुदीमित्रानन्द आदि रचनाएँ हैं ही, साथ ही द्रव्यालङ्कार और सिद्धहेमशब्दानुशासन के ऊपर लिखित टीका 'न्यास' उनके क्रमश: न्याय और व्याकरणशास्त्रविषयक नैपुण्य को प्रमाणित करते हैं।
१. प्र०चि०, ४/१९। २. नाट्यदर्पण, पृ० ४०९।
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