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________________ १७८ कौसुम्भैर्घटितावचूलमभितो मत्तालिभिर्दामभिः, सिन्दूरारुणिताङ्गणं गृहमिदं देवस्य चेतोभुवः ।। ६ ।। (प्रविश्य) ब्रह्मलय: सिंहासनमास्यतां देवेन । कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् — देव ! स एष विहितविशेषपूजो भगवाननङ्गः । इदं च सिद्धाधिनाथ: - (प्रणम्य) जनमहितमहिम्नां विष्णु- शम्भु स्वयम्भूहरि - हय- हिमधाम्नां दुर्यशोनाट्यबीजम् । कृततरुणिममाद्यन्मानिनीमानभङ्गः, प्रथयतु महतीं नस्तां समीहामनङ्गः ।।७।। (पुनः सिंहासनमलङ्कृत्य सोत्कण्ठम् ) हिमकरकराकीर्णा रात्रिर्मधुः कलितोदयो, गलितकुसुमैश्छन्ना भूमिः, सचापकरः स्मरः । Jain Education International सजाने के लिए) केसरिया पताकाएँ लटक रही हैं जिन पर उन्मत्त भ्रमरपंक्ति मँडरा रही है और आँगन सिन्दूर (के गिरकर फैलने) से लाल हो गया है ।। ६ ।। (प्रवेश कर) ब्रह्मलय - देव! यही हैं भगवान् कामदेव, जिनकी विशेष पूजा करनी है और यह सिंहासन है, इस पर आप बैठें। सिद्धाधिनाथ — (प्रणाम करके) लोकविश्रुत महिमा वाले भगवान् विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य और चन्द्रदेव के दुर्यश के प्रसार के कारणभूत और तारुण्य के मद से मतवाली मानिनियों गर्व को चूर करने वाले भगवान् कामदेव हमारी कामेच्छा को प्रवर्धित करें ।। ७ ।। ( पुनः सिंहासन पर बैठकर उत्कण्ठापूर्वक) यदि विधाता अनुकूल हो, तो चन्द्रिका से नहलाई हुई रात्रि, प्रादुर्भूत वसन्तऋतु, गिरे हुए पुष्पों से आच्छादित भूमि, हाथ में पुष्प धनुष लिए हुए साक्षात् For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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