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________________ दशमोऽङ्कः १७७ वध्यहस्तेनैव कार्यः। (पुरुषो निष्क्रान्तः।) (नेपथ्ये) वसुधातलसन्तपनस्तपनश्चरमं प्रयात्यचलमेषः। प्रियजनसङ्घटनकरं तिमिरं प्रविलुठति काष्ठासु।।५।। पञ्चभैरव:- देव! मान्त्रिकमन्त्रानुरूपं प्रदोषं मागधः पठितवान्। सिद्धाधिनाथ:- अधितिष्ठामस्तर्हि कामायतनम्। (सर्वे परिक्रामन्ति।) पञ्चभैरव:- देव! स्फूर्जद्यावकपङ्कसङ्क्रमलसन्मध्यं जपासोदरै दूंष्यैः क्लुप्तपताकमानकिसलैस्तानीभवत्तोरणम्। से ही करवाना है। (पुरुष निकल जाता है।) (नेपथ्य में) पृथ्वी को सन्तप्त करने वाला सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा है और प्रेमीजनों को मिलवाने वाला अन्धकार सभी दिशाओं में व्याप्त हो रहा है।।५।। पञ्चभैरव- देव! मागध ने मान्त्रिक के मन्त्र के अनुरूप ही सायंकाल का वर्णन किया है। सिद्धाधिनाथ- तो अब हम लोग काममन्दिर की ओर चलें। (सभी घूमते हैं।) पञ्चभैरव- देव! यह भगवान् कामदेव का मन्दिर है जिसका आन्तरिक भाग चमकीले अलक्तक (महावर) के रस के प्रसार से चमकीला हो गया है, जिसके शिखर पर जपाकुसुम के समान गाढ़े लाल रङ्ग की पताका लहरा रही है, तोरणद्वार आम्रपल्लवों से आच्छादित होने के कारण ताम्रवर्ण के प्रतीत हो रहे हैं, सब तरफ (मन्दिर को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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