________________
१७९
दशमोऽङ्कः मिथुनघटनादक्षं मित्रं प्रिया प्रणयोन्मुखी, विधिरयमियान् सम्पद्येत प्रसीदति वेधसि।।८।।
(ततः प्रविशति लम्बस्तनी आत्रेयी च।) सिद्धाधिनाथ:- (आत्रेयीमवलोक्य सविस्मयम्) चक्षुर्बाष्पविकज्जलं करतलव्यासङ्गखण्डद्युति
गण्डश्रीरधरः खरः प्रसृमरैः सूत्कारतारोमिभिः। आहारप्रतिरोधकीकसशिरामात्रा च गात्रावनि
दृष्टिं प्रीणयते तथापि सुदती लेखेव शीतत्विषः।।९।। लम्बस्तनी- वत्से! पणमेहि सिद्धनाहं। (वत्से! प्रणम सिद्धनाथम् ।)
(आत्रेयी प्रणम्य सलज्जमधोमुखी भवति।) सिद्धाधिनाथ:सौभाग्यद्रुममञ्जरि! स्मरकरिक्रीडैकरेवावने!
लावण्यस्य तरङ्गिणि! त्रिभुवनप्रह्लादनाचन्द्रिके!।
कामदेव, प्रेमीयुगल का मिलन कराने में दक्ष मित्र और प्रणयोन्मुखी प्रिया- ये सभी भाग्यबल से उपस्थित हो जाते हैं।।८।।
(तत्पश्चात् लम्बस्तनी और आत्रेयी प्रवेश करती हैं।) सिद्धाधिनाथ- (आत्रेयी को देखकर विस्मयपूर्वक)
अश्रुप्रवाह के कारण आँखों का काजल धुल गया है, हथेली से पुनः पुनः रगड़े जाने के कारण कपोलों की कान्ति क्षीण हो गयी है, जोर-जोर से चीखने के कारण अधरोष्ठ फट गया है और भोजन न ग्रहण करने के कारण शरीर कठोर और कृश हो गया है, फिर भी यह सुदती (कौमुदी) चन्द्रकला के समान नेत्रों को आह्लादित कर रही है।।९।।
लम्बस्तनी- पुत्रि! सिद्धनाथ को प्रणाम करो।
(आत्रेयी प्रणाम करके लज्जा से मुख नीचे झुका लेती है।)
सिद्धाधिनाथ- हे सौभाग्यरूपी वृक्ष की मञ्जरि! कामरूपी गज की क्रीड़ा हेतु एकमात्र नर्मदातटस्थित वनस्वरूपिणि! हे लावण्य (सौन्दर्य) की तरङ्गिणि! हे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org