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XII
कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् महाकवि रामचन्द्रसूरि काव्यानुशासनकार आचार्य हेमचन्द्र के पट्टशिष्य थे। जैनाचार्य प्रभाचन्द्रसूरिप्रणीत प्रभावकचरित (१२६६ई०) से ज्ञात होता है कि आचार्य हेमचन्द्र ने जयसिंह सिद्धराज के काल में ही उन्हें अपना पट्टशिष्य घोषित कर दिया था। स्वयं रामचन्द्रसूरि ने कौमुदीमित्रानन्द, नलविलास, सत्यहरिश्चन्द्र, निर्भयभीमव्यायोग आदि कृतियों में आचार्य हेमचन्द्र को अपना गुरु बताया है
श्रीमदाचार्यहेमचन्द्रस्य शिष्येण ........... रामचन्द्रेणार
श्रीमदाचार्यहेमचन्द्रस्य शिष्यस्य प्रबन्धशतकर्तुर्महाकवेः रामचन्द्रस्य भूयांसः प्रबन्धाः।
महाकवि रामचन्द्र के जन्मकाल और स्थान के विषय में निर्णय कर पाना सम्भव नहीं है, क्योंकि स्वयं उन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों की ही भाँति अपने जन्म, वंश, माता-पिता आदि के सम्बन्ध में कोई निर्देश नहीं किया है और न ही इस सम्बन्ध में जानकारी के लिए कोई ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध है, तथापि चूँकि ये चालुक्य शासकों जयसिंह सिद्धराज (१०९३-११४३ई०) और कुमारपाल (११४३-११७२ ई०) के काल में वर्तमान थे, अत: इनका आविर्भाव काल १२वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध मान लेने में कोई अनौचित्य नहीं।
महाकवि रामचन्द्र नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के धनी थे। वे तत्काल पद्यरचना में पारङ्गत (आशुकवि) थे। कहा जाता है कि एक बार महाराज जयसिंह सिद्धराज ने अपने सभासदों से प्रश्न किया कि ग्रीष्म ऋतु में दिन बड़े क्यों हो जाते हैं? अन्य कोई सभासद इस प्रश्न का सन्तोषजनक उत्तर न दे सका। उस समय रामचन्द्र भी सभा में उपस्थित थे। उन्होंने इस प्रश्न का स्तुतिपरक पद्यमय उत्तर इस प्रकार दिया
देव! श्रीगिरिदुर्गमल्ल भवतो दिग्जैत्रयात्रोत्सवे धावद्वीरतुरङ्गनिष्ठुरखुरक्षुण्णक्षमामण्डलात् ।
१. प्रभावकचरित, २२/१२९-२३। २. कौमुदीमित्रानन्द, पृ० १। ३. निर्भयभीमव्यायोग, पृ० १, (पार्श्वनाथ विद्यापीठ प्रकाशन, १९९६)।
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