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XI
भूमिका आलोचनाशास्त्र के मर्मज्ञ विश्वेश्वर पण्डित ने नवमालिका नाटिका तथा शृङ्गारमञ्जरी सट्टक का प्रणयन किया।
उन्नीसवीं शताब्दी में देश में राष्ट्रीय चेतना की जागृति ने संस्कृत लेखकों के चिन्तन की भी दिशा बदल दी, परिणामत: इस काल की नाट्य रचनाओं में मुख्यत: राष्ट्रप्रेम की भावना ही मुखरित हुई है। इन रचनाओं में प्रमुख हैं- पण्डित अम्बिकादत्त व्यास (१८५०-१९०० ई०) कृत सामवत; मूलशङ्कर मणिकलाल याज्ञिककृत छत्रपतिसाम्राज्य, प्रतापविजय और संयोगितास्वयंवर तथा हरिदास सिद्धान्तवागीशकृत मेवाड़प्रताप, बङ्गीयप्रताप, विराजरोजिजी, कंसवध, जानकीशविक्रम और शिवाजीचरित।
उपरिनिर्दिष्ट नाट्य-ग्रन्थों के अतिरिक्त नाट्यसाहित्य के विकासक्रम में अनेक अप्रसिद्ध ग्रन्थों का भी प्रणयन हुआ। उनमें से अनेक ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं और अनेक ऐसे हैं जिनका अभी तक प्रकाशन नहीं हो पाया है। ऐसे रूपकों का विस्तरभय से परिचय प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है। कवि-परिचय ___ कौमुदीमित्रानन्द प्रकरण के रचयिता महाकवि रामचन्द्रसूरि चालुक्य नरेशों जयसिंह सिद्धराज (१०९३-११४३ ई०) और कुमारपाल (११४३-११७२ई०) के शासनकाल में वर्तमान थे। संस्कृत-साहित्य के विकास में गुजरात का विशेष योगदान रहा है और गुजरात के चालुक्यवंशीय नरेशों के ११वीं से १४वीं शती तक के समय को इस दृष्टि से स्वर्णयुग कहा जा सकता है। इस काल में चालुक्य राजधानी अणहिलपट्टन समस्त देश के विद्वानों का अतिप्रिय केन्द्र बन गयी थी। यद्यपि अणहिलपट्टन के राजा शैवमतावलम्बी थे और स्वयं के लिए 'उमापतिलब्धप्रसाद' उपाधि का प्रयोग करते थे, तथापि उनके राज्य में पर्याप्त धार्मिक सहिष्णुता थी और उनकी राजसभा को ज्ञानदेव, सोमेश्वरपुरोहित, दामोदरपण्डित, महाकवि विल्हण आदि शैवाचार्यों के साथ-साथ शान्तसूरि, अजयदेवसूरि, हेमचन्द्रसूरि प्रभृति जैनाचार्यों ने भी अलंकृत किया। राजा कुमारपाल द्वारा जैनाचार्य हेमचन्द्रसूरि का शिष्यत्व ग्रहण करना भी उनकी धार्मिक सहिष्णुता का प्रमाण है।
१. विशेष अध्ययन हेतु इतिहास-ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं।
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