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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम्
चैतन्यदेव के जीवन की मनोरम झाँकी प्रस्तुत की गयी है । दश अङ्कों में विभक्त इस नाटक की भाषा अत्यन्त सरल और सरस है तथा इसमें आदि से अन्त तक प्रासादिकता वर्तमान है। चैतन्य के सिद्धान्तों के परिज्ञान के लिए यह नाटक अत्यन्त उपयोगी है।
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सत्रहवीं शताब्दी में भी अनेक महत्त्वपूर्ण रूपकों का प्रणयन हुआ। इसी शताब्दी के मध्य में वर्तमान कालीकट के राजा के सभापण्डित 'उद्दण्ड' कवि ने मल्लिकामारुत' नामक प्रकरण का प्रणयन किया। इस प्रकरण का कथानक मालतीमाधव के समान है। कालीकट के ही राजा मानवेद (१६५९-१६६२ ई० ) के सभापण्डित कवि 'रुद्रदास' ने चन्द्रलेखा' नामक 'सट्टक' की रचना की जिसमें राजा मानवेद और अङ्गदेश की राजकुमारी चन्द्रलेखा के विवाह प्रसङ्ग का अत्यन्त रोचक वर्णन किया गया है। यह एक सरस और सुन्दर सट्टक है जिसमें अङ्गीरस शृङ्गार के अतिरिक्त अद्भुत आदि अन्य रसों का भी स्फुट परिपाक हुआ है। मिथिला के कवि 'गोकुलनाथ' द्वारा १६९३ ई० में विरचित प्रतीक नाटक अमृतोदय' बड़ा ही पाण्डित्यपूर्ण है। श्रुति, आन्वीक्षिकी, कथा, पतञ्जलि, जाबालि आदि पात्रों के कथोपकथन के माध्यम से आत्मज्ञान का उदय दिखलाना ही इस नाटक का मुख्य उद्देश्य है। मिथिला के ही शैव कवि 'हरिहर' द्वारा रचित भर्तृहरिनिर्वेद' अत्यन्त शिक्षाप्रद प्रतीक नाटक है। इसमें राजा भर्तृहरि के वैराग्य की प्रसिद्ध कथा का वर्णन है ।
अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में तञ्जौर के राजा शाहजी (१६८४ - १७१० ई०) और शरभोजी (१७११-१७२०ई०) के प्रधानमन्त्री 'आनन्दरायमखी' ने दो प्रतीक नाटकों विद्यापरिणयन तथा जीवानन्दन की रचना की। सात अङ्कों में विभक्त विद्यापरिणयन में अद्वैत वेदान्त और शृङ्गार रस का मञ्जुल सामञ्जस्य दिखलाया गया है। शिवभक्ति द्वारा मुक्तिलाभ के प्रतिपादन में ही नाटक का मुख्य प्रयोजन निहित है। जीवानन्दन में भी सात अङ्क हैं। इसमें आयुर्वेद एवं अध्यात्मवेद के मान्य तत्त्वों का प्रतिपादन किया गया है। इसी शताब्दी के पूर्वार्ध में संस्कृत
१. जीवानन्द विद्यासागर द्वारा प्रकाशित |
२. भारतीय विद्या ग्रन्थावली, मुम्बई से १९४५ में प्रकाशित (ग्रन्थाङ्क ६ ) ।
३. काव्यमाला (ग्रन्थाङ्क ५९), १८९७ में प्रकाशित ।
४. वही (ग्रन्थाङ्क २९) १८९२ में प्रकाशित ।
५. अड्यार लाइब्रेरी, चेन्नई से १९५० में प्रकाशित ।
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