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भूमिका रामकथाश्रित सात अङ्कों के उत्कृष्ट नाटक प्रसन्नराघव की रचना की। जयदेव सम्भवत: मिथिलावासी थे और इनके माता-पिता का नाम सुमित्रा और महादेव था। ये गीतगोविन्दकार जयदेव से सर्वथा भिन्न हैं,क्योंकि गीतगोविन्दकार जयदेव भोजदेव और रामादेवी के पुत्र थे और बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विद्यमान बङ्गनरेश लक्ष्मणसेन के सभाकवि थे। तेरहवीं शताब्दी की ही एक अन्य महत्त्वपूर्ण रचना है- वृषभानुजा नाटिका।' इसके रचयिता 'मथुरादास' गङ्गा के तीरस्थ सुवर्णशेखर नामक स्थान के कायस्थ थे। इस नाटिका में राधा-कृष्ण के प्रेम का मनोहारी चित्रण किया गया है।
चौदहवीं शताब्दी में साहित्यदर्पण के प्रणेता 'विश्वनाथ कविराज' ने चन्द्रकला एवं प्रभावतीपरिणय नामक दो नाटिकाओं की रचना की। इन दोनों रचनाओं का उल्लेख उन्होंने साहित्यदर्पण में किया है। चन्द्रकला हर्ष की रत्नावली को आदर्श मानकर लिखित मनोरम नाटिका है जिसकी भाषा और वर्ण्यविषय दोनों सरल और रोचक हैं। अभिनेयता की दृष्टि से भी यह अत्युत्तम रचना है। मिथिला के कर्णाटवंशीय नरेश हरिसिंह देव (१२७५-१३२४ ई०) के आश्रित महाकवि 'ज्योतिरीश्वर' ने सम्भवत: चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में धूर्तसमागम नामक प्रख्यात प्रहसन की रचना की। यह रचना ऐतिहासिक तथ्यों की उपलब्धि के कारण भी अति महत्त्वपूर्ण है।
पन्द्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में जैनकवि नयचन्द्र ने रम्भामञ्जरी' नामक 'सट्टक' की रचना की जिसमें काशीनरेश जयचन्द्र द्वारा रम्भा नाम की सुन्दरी से विवाह की विचित्र कथा वर्णित है। इसमें चार के स्थान पर केवल तीन ‘जवनिकान्तर' (सट्टक के अङ्कों का नामविशेष) हैं जो नाट्यशास्त्रीय नियम के विरुद्ध है और इसमें कहीं-कहीं संस्कृत के भी पद्य हैं।
सोलहवीं शताब्दी में सुविख्यात वैष्णव साधक महाप्रभु चैतन्यदेव के पार्षद शिवानन्दसेन के पुत्र परमानन्ददास ने, जिन्हें चैतन्यदेव ने 'कर्णपूर' उपाधि प्रदान की थी, चैतन्यचन्द्रोदय नामक प्रतीक नाटक की रचना की। जगन्नाथ-क्षेत्र के अधिपति गजपति प्रतापरुद्र की आज्ञा से १५७९ ई० में लिखित इस नाटक में
१. काव्यमाला से प्रकाशित (ग्रन्थाङ्क २६)। २. काशी संस्कृत ग्रन्थमाला (सं० १७७) में चौखम्भा कार्यालय द्वारा १९३७ में
प्रकाशित। ३. निर्णयसागर प्रेस, मुम्बई से १८८९ में प्रकाशित।
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