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________________ VIII कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् शताब्दी में कृष्णमिश्र ने प्रबोधचन्द्रोदय की रचना कर इस परम्परा को पुनरुज्जीवित करने का श्लाघनीय कार्य किया। इस नाटक में विवेक,मोह,दम्भ,अहङ्कार-प्रभृति अमूर्त पात्रों के सजीव संवादों के माध्यम से 'अद्वैतवेदान्त' तथा 'विष्णुभक्ति' का सुन्दर समन्वय किया गया है। ग्यारहवीं शताब्दी के ही अन्त में १०८० ई० के आस-पास विक्रमाङ्कदेवचरित महाकाव्य के रचयिता महाकवि 'विल्हण' ने कर्णसुन्दरी' नामक रोचक नाटिका की रचना की। इसमें 'अणहिलवाड' के राजा कर्णदेव त्रैलोक्यमल्ल (१०६४-१०९४ ई०) के वृद्धावस्था में कर्णाटनरेश की पुत्री के साथ विवाह का नाटकीय वर्णन है। नाटिका का कथानक राजशेखर की विद्धशालभञ्जिका से और शैली रत्नावली से प्रभावित है। बारहवीं शताब्दी के मध्यभाग (लगभग ११३०-११८० ई०) में काव्यानुशासनकार आचार्य हेमचन्द्र के पट्टशिष्य और नाट्यदर्पण जैसे महत्त्वपूर्ण नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थ के रचयिता आचार्य 'रामचन्द्र' ने कुल दश रूपकों की रचना की। इन रूपकों में नलविलास,सत्यहरिश्चन्द्र, यादवाभ्युदय,राघवाभ्युदय और रघुविलास- ये पाँच नाटक; कौमुदीमित्रानन्द, मल्लिकामकरन्द और रोहिणीमृगाङ्क - ये तीन प्रकरण-निर्भयभीम व्यायोग और वनमाला चार अङ्कों की नाटिका हैं। नाट्यदर्पण के उद्धरण से प्रतीत होता है कि वनमाला नाटिका में नल-दमयन्ती का चरित वर्णित है, जिसका उपजीव्य महाभारत का नलोपाख्यान है। रामचन्द्र के आश्रयदाता चालुक्यनरेश कुमारपाल के परवर्ती गुर्जरनरेश अभयदेव के सभाकवि 'यशःपाल' ने मोहराजपराजय' नामक सुविख्यात 'प्रतीक नाटक' की रचना की। यह कृष्णमिश्र के प्रबोधचन्द्रोदय से पूर्ण प्रभावित शान्तरस-प्रधान नाटक है। तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में 'वेदान्तदेशिक' (१२६८-१३६९ ई०) ने दश अङ्कों में विभक्त सङ्कल्पसूर्योदय ३ नामक प्रतीक नाटक की रचना की। वेदान्तदेशिक विशिष्टाद्वैतवादी रामानुजाचार्य के मत को प्रतिष्ठित करने वाले आचार्य 'वेङ्कटनाथ' की ही उपाधि है। सङ्कल्पसूर्योदय में 'मोह' को पराजित कर 'ज्ञान' के उत्कर्ष का सरस नाटकीय वर्णन किया गया है। तेरहवीं शताब्दी में ही सुप्रसिद्ध अलङ्कारशास्त्रीय ग्रन्थ चन्द्रालोक के प्रणेता 'पीयूषवर्ष जयदेव' ने १. काव्यमाला से प्रकाशित (ग्रन्थाङ्क ७)। २. गायकवाड़ ओरियेण्टल सीरीज, बड़ौदा से १९३० में प्रकाशित (ग्रन्थाङ्क ८)। ३. अड्यार लाइब्रेरी, मद्रास से १९४८ में प्रकाशित। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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