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दशमोऽङ्कः पञ्चभैरव:- देव! क्षेमङ्करी प्रणमति। सिद्धाधिनाथ:-क्षेमङ्करि ! निष्प्रत्यूहव्रतानुष्ठाना कुशलवती कुन्दलता?
क्षेमङ्करी- सिद्धाहिवदिणो पसादेण। (पुन: सविनयम्) एदं विनवेदि कुन्दलता अत्थि अम्हाणं आसमे मंतिओ अदिधी, सो मंतेण तंतेण य पहारवेयणं पडिहणेदि।
(सिद्धाधिपतेः प्रसादेन। एतद् विज्ञपयति कुन्दलता-अस्ति अस्माकमाश्रमे मात्रिकोऽतिथिः, स मन्त्रेण तन्त्रेण च प्रहारवेदनां प्रतिहन्ति।)
सिद्धाधिनाथ:- मन्त्रविस्तरं विधापयितुं वयमिदानीमनोजस्विनः, तन्त्रप्रयोगं यदि करोति, तदा कुरुताम्।
(क्षेमङ्करी निष्क्रान्ता।) सिद्धाधिनाथ:- (सविषादम्) अहो वैचित्र्यं कालस्य! प्रहारवेदनामुपशमयितुं वयमपि साम्प्रतमपरस्य मुखमीक्षामहे।
पञ्चभैरव- देव! क्षेमङ्करी प्रणाम कर रही है।
सिद्धाधिनाथ– क्षेमङ्करि! क्या कुन्दलता निर्विघ्न व्रतानुष्ठान करती हुई सकुशल है?
क्षेमकरी- सिद्धाधिनाथ की कृपा से सकुशल है। (पुन: विनयपूर्वक) कुन्दलता ने यह निवेदन किया है- हमारे आश्रम में एक मान्त्रिक अतिथि है और वह तन्त्र-मन्त्र से प्रहारवेदना को नष्ट कर देता है।
सिद्धाधिनाथ- मन्त्र-प्रयोग (अनुष्ठान) करवाने में मै इस समय असमर्थ हूँ, तन्त्रप्रयोग यदि करता है तो करे।
(क्षेमङ्करी निकल जाती है।) सिद्धाधिनाथ– (खेदपूर्वक) अहो! समय की गति कितनी विचित्र है, प्रहारवेदना को शान्त करने हेतु मुझे भी इस समय दूसरे की सहायता लेनी पड़ रही है! १. एवं क। २. अहो ? विपाकवैचित्र्यं क।
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