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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् पञ्चभैरव:- भद्रे! प्रहारवेदनाभिरतितरामस्वस्थशरीरः साम्प्रतं सिद्धपरमेश्वरो वक्तुमपि न प्रभविष्णुः, ततो दृष्ट्वा किं करिष्यसि?
क्षेमङ्करी- पहारवेअणोपसमणत्थं चेय दंसणमभिलसामि। (प्रहारवेदनोपशमनार्थमेव दर्शनमभिलषामि।)
पञ्चभैरव:- सत्वरमागच्छ, पश्य तर्हि कामकाननकदलीगृहमधिशयानं सिद्धाधिनाथम्। (ततः प्रविशति यथानिर्दिष्टः सिद्धाधिनाथः सुघण्टनन्दिघोषप्रभृतिकश्च परिवारः।)
सिद्धाधिनाथ:- (प्रहारवेदनामभिनीय) अहह! सुघण्ट:- देव ! किं प्रहारव्रणमियन्तं कालमवतिष्ठते? सिद्धाधिनाथ:- कुपितदेवताप्रहारोऽयंन संरोहिणीमौषधीं विना प्रशाम्यति। नन्दिघोष:- किमसाध्या संरोहिणी सिद्धपरमेश्वरस्य?
(सिद्याधिनाथः दीर्घ नि:श्वस्य तूष्णीमास्ते।) पञ्चभैरव- भद्रे! प्रहारवेदना से अत्यन्त अस्वस्थ शरीर वाले सिद्धाधिनाथ इस समय बोल पाने में भी समर्थ नहीं हैं, तो उनके दर्शन कर क्या करोगी?
क्षेमङ्करी- प्रहारवेदना को शान्त (समाप्त) करने के लिए ही तो दर्शन करना चाहती हूँ।
पञ्चभैरव- तो शीघ्र आओ और कामवन के कदलीगृह में सोये हुए सिद्धाधिनाथ को देखो। (तत्पश्चात् यथानिर्दिष्ट सिद्धाधिनाथ और सुघण्ट, नन्दिघोष आदि अनुचरगण
प्रवेश करते हैं।) सिद्धाधिनाथ- (प्रहारवेदना का अभिनय करके) आह! सुघण्ट- देव! क्या प्रहार का घाव अभी तक विद्यमान है?
सिद्धाधिनाथ- यह क्रोधित देवता का प्रहार है, जो संरोहिणी (घाव को सुखाने वाले औषध विशेष ) औषध के विना शान्त नहीं होता। नन्दिघोष– क्या संरोहिणी औषध आपके लिए भी अप्राप्य है?
(सिद्धाधिनाथ दीर्घ निःश्वास लेकर चुप रह जाता है।)
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