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॥अथ दशमोऽङ्कः।।
(ततः प्रविशति पञ्चभैरवः।) पञ्चभैरव:- (उच्चैःस्वरम्) हंहो विद्याधराः! स्वयं रत्नकूटाधिपतिर्वः समादिशति-द्रुतमाकारयत दक्षिणाश्रमवासिनी लम्बस्तनीम्, तौ च वध्यौ कुतोऽपि गवेषयित्वा समानयत, पुरुषोत्तमं च तं जीवितदायिनं सङ्कटयत।
.... (नेपथ्ये) यदादिशति सिद्धपरमेश्वरस्तदचिरादेव सम्पादयामि।
पञ्चभैरव:- तर्हि गत्वा विज्ञपयामि सिद्धाधिपतये। (इति परिक्रामति। विलोक्य) कथमियमुत्तराश्रमवासिन्याः कुन्दलतायास्तापसी क्षेमङ्करी?
(प्रविश्य) क्षेमङ्करी- अय्य पंचभेरव! सिद्धाहिवदिणो दंसणमहिलसामि। । (आर्य पञ्चभैरव! सिद्धाधिपतेर्दर्शनमभिलषामि।)
दशम अङ्क (तत्पश्चात् पञ्चभैरव प्रवेश करता है।) पञ्चभैरव- (उच्च स्वर में) अरे अरे विद्याधरो! स्वयं रत्नकूटनरेश आदेश दे रहे हैं कि दक्षिण दिशा की आश्रम-वासिनी लम्बस्तनी को शीघ्र बुलाइये, उन दोनों वध्यपुरुषों को कहीं से भी खोजकर ले आइये और उस जीवनदाता श्रेष्ठपुरुष को भी मिलवाइये।
(नेपथ्य में) सिद्धपरमेश्वर की जैसी आज्ञा है, वैसा शीघ्र ही करता हूँ।
पञ्चभैरव- तो जाकर सिद्धाधिनाथ को सूचित करता हूँ। (यह कहकर घूमता है। पुन: देखकर) क्या यह उत्तराश्रमवासिनी कुन्दलता की तापसी (शिष्या) क्षेमङ्करी (आ रही) है?
(प्रवेश कर) क्षेमकरी- आर्य पञ्चभैरव! सिद्धाधिनाथ के दर्शन करना चाहती हूँ।
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