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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम्
(पुनः स्मृत्वा) अनुजग्राह नस्तत्र स्वक्लेशमुपगम्य यः । निसर्गसुहृदस्तस्य वणिजः किं विदध्महे ? । । १ । ।
(पुनः सविषादम) परस्मादुपकारो यः सोऽपि व्रीडावहः सताम् । तस्याप्रत्युपकारस्तु दुनोत्यन्तः पशूनपि । । २ ।। (नेपथ्ये) परिमलभृतो वाताः, शाखा नवाङ्कुरकोटयो, मधुरविरुतोत्कण्ठाभाजः प्रियाः पिकपक्षिणाम् । विरलविरलस्वेदोद्द्वारा वधूवदनेन्दवः,
प्रसरति मधौ धात्र्यां जातो न कस्य गुणोदय: ? । । ३ । । सुघण्ट : - देव! शुभोदर्कं मागधः पठितवान् ।
(पुनः स्मरण कर)
जिसने स्वयं सङ्कट में पड़कर भी वहाँ (वरुणद्वीप में) मुझ पर अनुग्रह (करके मुझको पाशपाणि के बन्धन से मुक्त) किया था, उस स्वाभाविक मित्र व्यापारी (मित्रानन्द) का मैं क्या ( प्रत्युपकार) करूँ ? ।। १ ।।
(पुनः विषादपूर्वक)
दूसरों द्वारा स्वयं पर किया गया उपकार भी सज्जनों के लिए लज्जास्पद होता है और उस उपकार का प्रत्युपकार न कर पाना तो पशुओं को भी व्यथित कर देता है (सज्जनों का तो कहना ही क्या ? ) ।। २ ।।
(नेपथ्य में)
हवायें सुगन्धि से परिपूर्ण हो गयीं हैं, वृक्षों की शाखाएँ कोटिशः नवीन किसलयों से आच्छादित हो गयीं हैं, प्रेमीजन कोयलों की मधुर कूक सुनकर समागम हेतु व्याकुल हो रहे हैं और तरुणियों के मुखचन्द्रों पर कुछ-कुछ पसीने की बूँदें छलकने लगी हैं। इस प्रकार पृथ्वी पर वसन्त ऋतु के आगमन के कारण किसका गुणोदय नहीं हो गया है ? । । ३ । ।
सुघण्ट - देव! मागध ने शुभसूचक पाठ किया है।
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