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________________ युवराज:- अमात्य ! मित्रानन्दशब्दयोराकर्णनादुद्वेजिताः स्मः । पूर्जम्भारिपुरोपमानममरस्तम्बेरमस्पर्धिनो नवमोऽङ्कः नागाः, सूर्यतुरङ्गनिर्जयजवैर्विभ्राजिनो वाजिनः । राज्यश्रीककुदं तदेतदखिलं यन्मन्त्रलीलायितं, तस्यांघ्रिद्वितयीं शिरस्यवहतो धिङ् नः कृतघ्नानिमान् । । २ । । (पुनर्विमृश्य) अमात्य ! वचस्विनामवाच्यं श्रद्धालूनामश्रद्धेयं महीयसामश्रोतव्यमैहिकाऽऽ मुष्मिकापायप्रत्यवमर्शबन्ध्यमतिना कामरतिना पश्य कीदृशम नुष्ठितम् ? चारायणः १५१ देव! किमनुष्ठितवानमात्यः कामरतिः ? युवराज: अस्माकं जीवितैकनिदानं मित्रानन्दाभिधानं तत्पत्नीमभिलाषुकः कामरतिः 'स्वनगरं प्रति प्रस्थापितो मित्रानन्दः' इति प्रवादं विधाय विजयवर्मणे व्यापादयितुमुपनीतवान् । युवराज — अमात्य ! मित्र और आनन्द शब्दों को सुनने से मैं व्याकुल हो गया हूँ । हम कृतघ्नों को धिक्कार है, क्योंकि हम उस महापुरुष (मित्रानन्द) के दोनों चरण अपने मस्तक पर नहीं रख सके जिसकी सन्मन्त्रणा की ही यह लीला है कि हमारी राजलक्ष्मी इतनी उन्नत है जिससे हमारी राजधानी इन्द्र की नगरी (स्वर्ग की राजधानी अमरावती) के समान ( रमणीय) है, हमारे हाथी इन्द्र के गजराज ऐरावत के प्रतिस्पर्धी हैं और हमारे उत्कृष्ट घोड़े वेग में सूर्य के घोड़ों को भी जीतने वाले हैं । । ।।२।। (पुनः सोचकर) अमात्य ! देखो, ऐहिक और पारलौकिक अनिष्ट का विचार कर पाने में असमर्थ बुद्धि वाले कामरति ने वचस्वियों के लिए अवाच्य, श्रद्धालुओं के लिए अश्रद्धेय और महात्माओं के लिए अश्रोतव्य कैसा दुष्कृत्य कर दिया। चारायण - देव! क्या कर दिया अमात्य कामरति ने? Jain Education International युवराज- मेरे जीवन के एकमात्र आधार मित्रानन्द को उसकी पत्नी के अभिलाषी कामरति द्वारा 'मित्रानन्द को अपने नगर भेज दिया गया' ऐसी अफवाह फैलाकर उसे मरवाने के लिए विजयवर्मा के पास भेज दिया। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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