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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् चारायण:- देव!
जनुषान्था न पश्यन्ति भावान् केवलमैहिकान्।
ऐहिकाऽऽमुष्मिकान् कामकामलान्धाः पुनर्जनाः।।३।। युवराजः- ततः परं च रत्नाकरभङ्गेन तस्य किमपि संवृत्तमिति न जानीमः, तत्पत्नी पुनः कौमुदी व्याघ्रमुख्यां तिष्ठतीत्यस्ति किंवदन्ती।
(प्रविश्य) प्रतीहार:- देव! देशान्तरतः समायातो नरदत्तः सार्थवाहो युवराजपादान् द्रष्टुमभिलषति।
चारायण:- देव! क्रमागतविभूतिर्महानयं नरदत्तः सार्थवाहः, तदमुं महता गौरवेण देवो द्रष्टुमर्हति।
युवराजः- (सादरम्) त्वरिततरं प्रवेशय। (ततः प्रविशति उपायनीकृतरत्नभृतभाजनहस्तेन पुरुषेणानुगम्यमानो नरदत्तः।)
चारायण- देव!
जन्मान्ध लोग तो केवल ऐहलौकिक कृत्यों का अवलोकन नहीं कर पाते हैं, किन्तु कामान्ध लोग तो ऐहलौकिक और पारलौकिक दोनो कृत्यों का अवलोकन (विचार) करने में असमर्थ होते हैं।।३।।
युवराज- और उसके अतिरिक्त रत्नाकरदेश के नष्ट हो जाने के कारण उसका क्या हुआ यह मुझे ज्ञात नहीं। उसकी पत्नी कौमुदी व्याघ्रमुखी में है, ऐसी जनश्रुति है।
(प्रवेश कर) प्रतीहार- देव! परदेश से आया हुआ सार्थवाह नरदत्त आपके दर्शन करना चाहता है।
चारायण-देव! यह नरदत्त परम्परा-प्राप्त ऐश्वर्य वाला महान् सार्थवाह है। अत: आप बड़े सम्मान के साथ इससे मिलें।
युवराज- (आरदपूर्वक) अतिशीघ्र अन्दर ले आओ। (तत्पश्चात् रत्नों से भरा उपहारपात्र हाथ में लिए हुए पुरुष के आगे-आगे
नरदत्त प्रवेश करता है।)
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