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________________ १५२ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् चारायण:- देव! जनुषान्था न पश्यन्ति भावान् केवलमैहिकान्। ऐहिकाऽऽमुष्मिकान् कामकामलान्धाः पुनर्जनाः।।३।। युवराजः- ततः परं च रत्नाकरभङ्गेन तस्य किमपि संवृत्तमिति न जानीमः, तत्पत्नी पुनः कौमुदी व्याघ्रमुख्यां तिष्ठतीत्यस्ति किंवदन्ती। (प्रविश्य) प्रतीहार:- देव! देशान्तरतः समायातो नरदत्तः सार्थवाहो युवराजपादान् द्रष्टुमभिलषति। चारायण:- देव! क्रमागतविभूतिर्महानयं नरदत्तः सार्थवाहः, तदमुं महता गौरवेण देवो द्रष्टुमर्हति। युवराजः- (सादरम्) त्वरिततरं प्रवेशय। (ततः प्रविशति उपायनीकृतरत्नभृतभाजनहस्तेन पुरुषेणानुगम्यमानो नरदत्तः।) चारायण- देव! जन्मान्ध लोग तो केवल ऐहलौकिक कृत्यों का अवलोकन नहीं कर पाते हैं, किन्तु कामान्ध लोग तो ऐहलौकिक और पारलौकिक दोनो कृत्यों का अवलोकन (विचार) करने में असमर्थ होते हैं।।३।। युवराज- और उसके अतिरिक्त रत्नाकरदेश के नष्ट हो जाने के कारण उसका क्या हुआ यह मुझे ज्ञात नहीं। उसकी पत्नी कौमुदी व्याघ्रमुखी में है, ऐसी जनश्रुति है। (प्रवेश कर) प्रतीहार- देव! परदेश से आया हुआ सार्थवाह नरदत्त आपके दर्शन करना चाहता है। चारायण-देव! यह नरदत्त परम्परा-प्राप्त ऐश्वर्य वाला महान् सार्थवाह है। अत: आप बड़े सम्मान के साथ इससे मिलें। युवराज- (आरदपूर्वक) अतिशीघ्र अन्दर ले आओ। (तत्पश्चात् रत्नों से भरा उपहारपात्र हाथ में लिए हुए पुरुष के आगे-आगे नरदत्त प्रवेश करता है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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