SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ||अथ नयमोऽङ्कः।। (ततः प्रविशति युवराजो लक्ष्मीपतिरमात्यश्चारायणश्च।) युवराज:- (ससम्भ्रमम्) कोऽत्र भोः कञ्चकिषु? (प्रविश्य) कञ्चुकी- एषोऽस्मि। युवराजः- समादिश अगदङ्कारमात्रेयम्। यथा-देव्या अनङ्गसेनाया वपुषि सावधानेन भाव्यम्। (कञ्चुकी निष्क्रान्तः।) (नेपथ्ये) सरसिजवनमपबन्धं दिशो वितमसो दृशः प्रकटभावाः। अवतरति नभोमित्रे वसुधायां कस्य नाऽऽनन्दः? ।।१।। चारायणः- देव! शुभोदकं मित्रोदयं मागधः पठितवान्। नवम अङ्क (तत्पश्चात् युवराज लक्ष्मीपति और मन्त्री चारायण प्रवेश करते हैं।) युवराज- (आकुलता से) अरे! यहाँ कोई कञ्चुकी है? (प्रवेश कर) कञ्चकी- मैं हूँ। युवराज- वैद्य आत्रेय को आदेश दो कि देवी अनङ्गसेना के स्वास्थ्य के प्रति सावधान रहें। (कञ्चुकी निकल जाता है।) (नेपथ्य में) कमलसमूह मुकुलित हो गया है, दिशाएँ अन्धकाररहित हो गयी हैं और आँखों से स्पष्ट दिखाई पड़ने लगी हैं। इस प्रकार सूर्य के उदित होने पर किसको आनन्दानुभूति नहीं होती, अर्थात् अवश्य होती है।।१।। चारायण- देव! मागध ने माङ्गलिक सूर्योदय का वर्णन किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy