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अष्टमोऽङ्कः
१४९ न दृश्यते?। भवतु तावत्, पातालभवनतः कौमुदी-सुमित्रे समाह्वयामि। (परिक्रम्य सविषादम्) कथं न किमपि पातालभवनं दृश्यते? नूनममुना कापालिकेन वञ्चितोऽस्मि।
(नेपथ्ये) मकरन्द! तूर्णमेहि व्रजति गृहीत्वा समप्रमपि सार्थम्।
व्यापाद्य तव पदातीन् नरदत्तः स्वां पुरीमेषः।।१४।। मकरन्दः- (आकर्ण्य) कथं सार्थेऽप्युपद्रवस्तदहं गत्वा सम्भावयामि।।
(इति निष्क्रान्ताः सर्वे।) ।।अष्टमोऽङ्कः समाप्तः।।
अनुचर भी नहीं दीख रहे हैं? अच्छा, पाताल-भवन से कौमुदी और सुमित्रा को बुलाता हूँ। (घूमकर खेदपूर्वक) क्या पाताल-भवन भी कहीं दिखाई नहीं दे रहा है? अवश्य इस कापालिक ने मुझे धोखा दिया है।
(नेपथ्य में) मकरन्द! शीघ्र आओ। तुम्हारा सम्पूर्ण धन लेकर और सभी सैनिकों को मारकर नरदत्त अपने नगर भाग रहा है।।१४।। .
मकरन्द- (सुनकर) क्या धन पर भी सङ्कट आ गया, तो मैं जाकर विचार करता हूँ।।
(सभी निकल जाते हैं।) ।।अष्टम अङ्क समाप्त।।
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