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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् कापालिक:- (ससम्भ्रमम्) किमपि दैवतं स्मरन्नसि? मकरन्द:- न किमपि स्मरामि।
(कापालिकः सविशेषमन्त्रखण्डानि जुहोति।)
(पुनः पुरुष उत्थाय तथैव निपतति।) कापालिक:- (साक्षेपम्) महाभाग! किमिति कमपि दैवतं स्मृत्वा होमभङ्गं करोषि?
मकरन्द:- सर्वथा नाहं किमपि स्मरामि।
(कापालिकः पुन: साक्षेपं मन्त्रमुच्चारयन्नन्त्रखण्डानि जुहोति।) (पुन: पुरुषवपुर्मकरन्दाभिमुखं गत्वा प्रतिनिवृत्त्य च करवालेन कापालिकमभिहन्ति।)
(कापालिक आक्रन्दमाधाय तिरोधत्ते।) मकरन्द:- (विलोक्य ससम्भ्रमम्) कथं पतितं पुरुषवपुः?, तिरोहितः क्वापि कापालिकः? (पुनर्दिशोऽवलोक्य) कथं मायामयादिकः परिवारोऽपि
कापालिक- (घबड़ाकर) किसी देवता का स्मरण कर रहे हो? मकरन्द- किसी का स्मरण नहीं कर रहा हूँ। (कापालिक विशेष प्रकार से आँत के टुकड़ों की आहुति देता है।)
(पुरुष पुन: उठकर उसी प्रकार गिर जाता है।) कापालिक- (क्रोधपूर्वक) महाभाग! क्यों किसी देवता का स्मरण करके यज्ञभङ्ग कर रहे हो?
मकरन्द- मैं वस्तुत: किसी का भी स्मरण नहीं कर रहा हूँ। (कापालिक पुन: क्रोधपूर्वक मन्त्रोच्चारण करता हुआ आँत के टुकड़ों की
आहुति देता है।) (पुन: पुरुषशरीर मकरन्द की तरफ जाकर और पुन: लौटकर तलवार से
कापालिक पर प्रहार करता है।)
(कापालिक चीखकर गायब हो जाता है।) मकरन्द- (देखकर घबड़ाहट पूर्वक) क्या पुरुषशरीर गिर गया? कापालिक भी कहीं गायब हो गया? (पुन: चारों तरफ देखकर) क्या मायामय आदि
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