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अष्टमोऽङ्कः
१४७ कापालिक:- (पुरुषवपुषः कुण्डानां च पूजां विधाय मकरन्दं प्रति)
मन्त्रापविद्धं यद्येतद् वपुर्धाम्यति मण्डले। तथापि न त्वया स्थानात् कम्पनीयमितस्ततः।।१३।। मकरन्द:- आवश्यकमेतत्। कापालिक:- मायामय! उपनय पुरुषवपुषः करवालम्।
(मायामयस्तथा करोति।) ___ (कापालिक: वसारसोपलिप्तान्यन्त्रखण्डानि जुहोति।) मकरन्द:-(स्वगतम्) अपि नाम कोऽप्यपायः सम्भवेत्, तदहं परमेष्ठिनाम पवित्रं मन्त्रं स्मरामि। (पुन: साशङ्कम्) कथं प्रहसति प्रचलति च पुरुषः?
कापालिक:- (मकरन्दं प्रति) समय इदानीं शवोत्थानस्य, ततस्त्वया सावधानेन भवितव्यम्। (पुरुषस्य वपुः करवालमादाय मकरन्दाभिमुखं कतिचित् पदानि दत्वा
पुनर्मण्डलमध्ये निपतति।)
कापालिक- (पुरुष-शरीर और हवनकुण्डों की पूजा करके मकरन्द से)
यदि यह अभिमन्त्रित शरीर यज्ञमण्डप में घूमे तब भी तुम अपने स्थान से इधर-उधर मत हिलना।।१३।।।
मकरन्द- मै ऐसा ही करूँगा। कापालिक- मायामय! पुरुषशरीर के पास खड्ग ले आओ।
(मायामय वैसा ही करता है।) (कापालिक चर्बी के रस में लिप्त आँत के टुकड़ों की आहुति देता है।)
मकरन्द- (मन ही मन) हो सकता है कोई अनिष्ट हो जाये, अत: मैं भगवान् पञ्च-परमेष्ठी के पवित्र नमस्कार मन्त्र का स्मरण करता हूँ। (पुनः आशङ्कापूर्वक) क्या यह मृत पुरुष हँस और चल रहा है?
कापालिक- (मकरन्द से) अब शव के उठने का समय हो गया है, अत: तुम सावधान हो जाओ। (पुरुष का शरीर तलवार लेकर मकरन्द की तरफ कुछ कदम चलकर पुन:
यज्ञमण्डप में गिर पडता है।)
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