SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४६ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् प्रवेशः समुचित इति न त्वया प्रतिभयाकुलेन मनसि किमपि ध्यातव्यम्। मकरन्द:- एवं करिष्यामि। (प्रविश्य) मायामय:- भगवन्! सर्वं प्रगुणमेव पूजोपकरणम्। तदागच्छत होमवेदिकाम्। (सर्वे परिक्रामन्ति।) मायामयःएतानि होमविधये ज्वलितानलानि कुण्डानि, सैष वनसैरिभपुच्छदीपः। एतद् वपुश्च पुरुषस्य सलक्षणस्य निर्जीवमेष पुनरन्त्र-वसोपहारः।।१२।। कापालिक:- पुरुषस्य वपुः क्व वर्तते? (प्रविश्य बटुः पुरुषस्य वपुर्मण्डलमध्ये विमुच्य निष्क्रान्तः।) देवता का प्रवेश उचित नहीं है, अत: तुम भयाकुल होकर मन में किसी का ध्यान भी मत करना। मकरन्द- ऐसा ही करूँगा। (प्रवेश कर) मायामय— भगवन्! समस्त पूजनसामग्री तैयार है। अत: आप यज्ञवेदी में आयें। (सभी घूमते हैं।) मायामय- ये हवि: प्रदान हेतु प्रज्ज्वलित अग्नि वाले कुण्ड हैं, यह जङ्गली भैंसे की पूंछ का दीपक है, यह रूपवान् पुरुष का निर्जीव शरीर है और यह आँत और चर्बी की बलिसामग्री है।।१२।। कापालिकः- पुरुष का शरीर कहाँ है? (प्रवेश करके बटु पुरुष का शरीर यज्ञमण्डप के मध्य में रखकर चला जाता है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy