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अष्टमोऽङ्कः मकरन्द:- इयं मे सधर्मचारिणी। कापालिक:- (कौमुदीमवलोक्य स्वगतम्) चलकमलविलासाभ्यासिनी नेत्रपत्रे,
दशनवसनभूमिबन्धुजीवं दुनोति। स्मरभरपरिरोहत्याण्डिमागूठरूढद्युतिविजितमृगाङ्का मोदते गण्डभित्तिः।।८।।
_ (प्रकाशं मकरन्दं प्रति) त्वां निध्याय निबद्धवासववपुःस्पर्धा, स्फुरद्यौवने
चैते प्रीति-रती इव. प्रियतमे देवस्य चेतोभुवः। स्मृत्वा तस्य कठोरघोरमनसः कृत्यं च पापीयस
शेतो नः प्रतिकम्पते विघटते सन्त्रस्यति भ्रश्यति।।९।।
मकरन्द- यह मेरी धर्मपत्नी है। कापालिक- (कौमुदी को देखकर मन ही मन)
इसके दोनों नेत्र चञ्चल कमलों के विलास का अनुकरण करने वाले हैं, इसके दातों का निवासस्थान (अधरोष्ठ) बन्धुजीव (दुपहरिया) नामक पुष्प को भी दुःखी (रक्तिमा से तिरस्कृत) कर रहा है और कामभार से विकसित पीत-धवल रूप में निहित उत्कृष्ट छटा (कान्ति) द्वारा चन्द्रमा को भी जीतने वाले इसके कपोल चित्त को आह्लादित कर रहे हैं।।८।।
(प्रकटरूप में मकरन्द से) इन्द्र के शरीर से स्पर्धा करने वाले (अतिसुन्दर) तुमको और कामदेव की प्रीति एवं रति-इन दो प्रियतमाओं के समान इन दोनों (कौमुदी एवं सुमित्रा) को देखकर और उस अतिकठोरहृदयी और पापी (विधाता) के दुष्कृत्य का स्मरण कर मेरा चित्त काँप रहा है, खण्डित हो रहा है, भयभीत हो रहा है और विचारमूढ़ (भ्रष्ट) भी हो रहा है।।९।।
१. पापान्धसः ख। २. प्रविकम्पते ख।
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