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________________ १४२ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् मकरन्द:- भगवन्! सर्वं विततमावेदय। (प्रविश्य सम्भ्रान्त: पुरुषो युवतिश्च।) पुरुष:- (सदैन्यम्) भगवन्! परित्रायस्व परित्रायस्व। युवति:- भयवं! रक्खेहि मं अणज्जविज्जाहरेण अवहरिजंति। (भगवन्! रक्ष मामनार्यविद्याधरेणापह्रियमाणाम् ।) कापालिक:- मा भैष्टां मा भैष्टाम्, अस्मदभ्यर्णमधिवसतोर्युवयोर्विरञ्चिरपि न प्रभविष्णुः, किमङ्ग! पुनः खेचरखेटः? पुरुष:- (सकरुणम्) भगवन्! देहि मे प्राणभिक्षाम्। मकरन्द:- (सभयम्) भगवन्! कुतोऽयमनयोरियान् प्रतिभयाडम्बरः? कापालिक:- अस्ति नामैको योनिसिद्धः, सच "पक्ष्मलाक्षीलक्षमभिरमेत विद्याधरपदकामः" इत्यलीकां पापीयसीं वैदिकीं वाचमाकर्ण्य पृथिव्यास्तरुणं स्त्रैणमपहरति। परदारव्रतं चानुरुन्धानो भर्तारं व्यापाद्य सभर्तृकामभर्तृकां मकरन्द- भगवन्! सब बातें विस्तार से कहिए। (घबड़ाये हुए स्त्री एवं पुरुष प्रवेश करके) पुरुष- (दीनतापूर्वक) भगवन्! रक्षा करें, रक्षा करें। युवती- भगवन्! मुझको दुष्ट विद्याधर द्वारा अपहृत होने से बचाइये। कापालिक- मत डरो, मत डरो! मेरे समीप रहते तो विधाता भी तुम दोनों का कुछ नहीं बिगाड़ सकता फिर सामान्य प्राणी क्या है? और उसमें भी यह दुराचारी विद्याधर? पुरुष- (दीनतापूर्वक) भगवन्! मुझे प्राणदान दीजिए। मकरन्द- (भयपूर्वक) भगवन्! ये दोनों इतने भयभीत क्यों हैं? कापालिक- एक सिद्ध है और वह 'विद्याधर पद-प्राप्ति की कामना करने वाला एक लाख सुन्दरियों के साथ रमण करे' इस असत्य और पापकारिणी वैदिकी वाणी को सुनकर पृथ्वी की युवतियों का अपहरण करता है और परस्त्रीगमन करता हुआ उनके पति की हत्या कर सधवाओं को भी विधवा बना देता है। इस नगर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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