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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् (पुन: सादरमिव प्रकाशम्) कोऽत्र भोः?, पाद्यं पाद्यम्, अर्थोऽर्थः। (पुनर्बटुं प्रति) उपनयाऽऽसनानि।
(बटुस्तथा करोति।) कापालिक:- सार्थवाह! साम्प्रतं कुतः? मकरन्द:- साम्प्रतं व्याघ्रमुखीतः।
(कापालिको बटो: कणे-एवमेव।)
(बटुः निष्क्रान्तः।) कापालिक:- (पुन: सस्पृहं कौमुदीमवलोक्य) इयं का? मकरन्दः- इयं मे भ्रातृजाया। कापालिक:- पतिरस्याः सार्थमध्ये तिष्ठति? मकरन्द:- अस्याः पत्युरवस्थानं यूयमेव निरर्गलज्ञानजुषो ज्ञास्यथ। कापालिक:- इयमपरा का?
(पुन: आदरभाव-सा दिखाते हुए प्रकट रूप से) अरे! यहाँ कौन है? पादोदक लाओ पादोदक, अर्घ लाओ अर्घ। (पुन: बटु से) आसन ले आओ।
(बटु वैसा ही करता है।) कापालिक- सार्थवाह! इस समय कहाँ से आ रहे हो? मकरन्द- इस समय व्याघ्रमुखी से आ रहा हूँ।
(कापालिक बटु के कान में ऐसा है।)
(बटु निकल जाता है।) कापालिक- (पुन: आसक्तिपूर्वक कौमुदी को देखकर) यह कौन है? मकरन्द- यह मेरी भ्रातृजाया है। कापालिक- क्या इसका पति सार्थ के साथ है?
मकरन्द-इसके पति की स्थिति तो निर्विघ्न ज्ञानसम्पन्न आप ही जान सकते हैं।
कापालिक- यह दूसरी कौन है?
१. 'मधितिष्ठति ख।
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