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________________ १४० कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् (पुन: सादरमिव प्रकाशम्) कोऽत्र भोः?, पाद्यं पाद्यम्, अर्थोऽर्थः। (पुनर्बटुं प्रति) उपनयाऽऽसनानि। (बटुस्तथा करोति।) कापालिक:- सार्थवाह! साम्प्रतं कुतः? मकरन्द:- साम्प्रतं व्याघ्रमुखीतः। (कापालिको बटो: कणे-एवमेव।) (बटुः निष्क्रान्तः।) कापालिक:- (पुन: सस्पृहं कौमुदीमवलोक्य) इयं का? मकरन्दः- इयं मे भ्रातृजाया। कापालिक:- पतिरस्याः सार्थमध्ये तिष्ठति? मकरन्द:- अस्याः पत्युरवस्थानं यूयमेव निरर्गलज्ञानजुषो ज्ञास्यथ। कापालिक:- इयमपरा का? (पुन: आदरभाव-सा दिखाते हुए प्रकट रूप से) अरे! यहाँ कौन है? पादोदक लाओ पादोदक, अर्घ लाओ अर्घ। (पुन: बटु से) आसन ले आओ। (बटु वैसा ही करता है।) कापालिक- सार्थवाह! इस समय कहाँ से आ रहे हो? मकरन्द- इस समय व्याघ्रमुखी से आ रहा हूँ। (कापालिक बटु के कान में ऐसा है।) (बटु निकल जाता है।) कापालिक- (पुन: आसक्तिपूर्वक कौमुदी को देखकर) यह कौन है? मकरन्द- यह मेरी भ्रातृजाया है। कापालिक- क्या इसका पति सार्थ के साथ है? मकरन्द-इसके पति की स्थिति तो निर्विघ्न ज्ञानसम्पन्न आप ही जान सकते हैं। कापालिक- यह दूसरी कौन है? १. 'मधितिष्ठति ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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