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अष्टमोऽङ्कः (सर्वे परिक्रामन्ति।)
(ततः प्रविशति कापालिकः।) कापालिक:- (साश्चर्यम्) आद्यं यत् किल बीजमन्धतमसक्लिन्नस्य दुःखोदधे
चेतः पर्वणि तत्र कुत्रचिदपि श्लाघ्ये समुत्कण्ठते। वेषस्त्वेष नरास्थिहार-रशना-ताडक-चूडामणि
प्रायः शंसति तापसी स्थितिमहो! रोमाञ्चिताः कौतुकैः।।६।। बटुः- (उपसृत्य) भगवन्! एष सार्थवाहः प्रणमति। कापालिक:- (कौमुदीं विलोक्य सहर्षमात्मगतम्)
यन्निमित्तं पुरा भ्राम्यन् क्लेशावेशमशिश्रियम्। तदेव स्वयमायातमहो! वेधाः प्रियङ्करः।।७।।
___ (सभी घूमते हैं।)
(तत्पश्चात् कापालिक प्रवेश करता है।) कापालिक- (आश्चर्यपूर्वक)
जो मेरा मन घने अन्धकार से आच्छन्न दुःखसमुद्र का मूल कारण है, वह (मन) किसी प्रिय (कामवासना को तृप्त करने वाले) अवसर की प्राप्ति के लिए उत्कण्ठित हो रहा है, किन्तु मानव-अस्थि से निर्मित और हार, करधनी, कुण्डल, चूडामणि आदि वाला यह वेष मेरे तपस्वी होने की स्थिति को द्योतित कर रहा है। अहो! मैं तो कौतूहल से रोमाञ्चित हो गया हूँ।।६।।
बटु- (समीप जाकर) भगवन्! यह सार्थवाह आपको प्रणाम कर रहा है। कापालिक- (कौमुदी को देखकर हर्षपूर्वक मन ही मन)
अहो! विधाता कितना कपाल है, क्योंकि पहले जिस वस्तु की प्राप्ति हेतु भटकते हुए मैंने अनेक विषम कष्टों को सहन किया, वही वस्तु (विधाता की कृपा से) स्वयं मेरे सम्मुख उपस्थित हो गयी।।७।।
१. दुःखावधेः का
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