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________________ १३८ भद्राम्भोजमृणालिनी, त्रिभुवनावद्यच्छिदाजाह्नवी, लक्ष्मीयन्त्रणशृङ्खला, गुणकलावल्लीसुधासारणिः । कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् संसारार्णवनौर्विपत्तिलतिकानिस्त्रिशयष्टिश्चिरं, दृष्टिर्नाभिसुतस्य नः प्रथयतु श्रेयांसि तेजांसि च । । ५ । । (पुनर्विचिन्त्य) आर्ये कौमुदि ! देवतायतनजगत्यां स्थित्वा विलोकयामः कस्यापि मानुषस्य सञ्चारम् । ( विलोक्य) कथमयमितस्ततो दत्तदृष्टिर्बटुः पर्यटन्नवलोक्यते? बटुः - स्वस्ति यजमानेभ्यः । मकरन्द: बटो! स्पष्टं प्रकटय त्रास- विस्मयकारिणः पुटभेदनस्यास्य स्वरूपमिदानीमेव देशान्तरादुपेयुषामस्माकम् । - (प्रविश्य) बटुः - महाभाग ! महानयं कथाप्रबन्धः । तमेवं योगीन्द्र एव युष्मभ्यमावेदयितुमलम्भूष्णुः । तदेत यूयम् । पश्यत देवतायतनोपवननिबद्धवासं योगीन्द्रम् । नाभिपुत्र भगवान् ऋषभदेव के दर्शन, जो कल्याणस्वरूप कमलों के लिए सरोवरतुल्य, तीनों लोकों के पाप को नष्ट करने के लिए गङ्गासदृश, लक्ष्मी को नियन्त्रित रखने के लिए बेड़ी के समान, गुण और कलाओं के प्रसाररूपी अमृत के लिए प्रवाहस्वरूप, संसाररूपी समुद्र को पार करने के लिए नौकासदृश और विपत्तिलता के लिए खड्गस्वरूप हैं, हमारे लिए मङ्गलकारक और बलदायक हों । । ५ । । (पुनः सोचकर ) आर्ये कौमुदि ! मन्दिर के परिसर में खड़े होकर हम किसी मनुष्य का आना-जाना देखते हैं। (देखकर ) क्या इधर-उधर दृष्टि डालता हुआ घूमने वाला बटु (बालक) दिखाई पड़ रहा है? (प्रवेश कर) Jain Education International बटु - यजमानों का कल्याण हो । मकरन्द - हे बटु ! अभी-अभी परदेश से आये हुए हम लोगों को भय और विस्मय उत्पन्न करने वाले इस नगर का स्वरूप साफ-साफ बतलाओ । बटु — महाभाग ! यह बहुत बड़ी कहानी है जिसे योगीन्द्र ही आपको बताने में सक्षम हैं। अत: आपलोग आयें, मन्दिर के उपवन में निवास करने वाले योगीन्द्र से मिलें। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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