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अष्टमोऽङ्कः
१३७ सुमित्रा- अज्जउत्त! फलविसंवाईणं कित्तियाणं सउणाणं कन्नं देसि? (आर्यपुत्र ! फलविसंवादिनां कियतां शकुनानां कर्णं ददासि?) मकरन्द:- प्रिये! विसंवदतु वा मा वा शकुनं फलकर्मणि।
तथापि प्रथमं चेतो वैमनस्यमुपाश्नुते।।४।। आभ्यन्तरं च शकुनं चेत एव, तदेहि देवतायतनमेतदधिरुह्य देवतां नमस्कुर्मः। उपनता अपि हि विपदः प्रतिरुध्यन्ते देवतादर्शनेन।
(सर्वे देवतायतनमधिरोहन्ति।) मकरन्द:– कथमयं सकलदेवताधिचक्रवर्ती नाभिसूनुश्चैत्याभ्यन्तरमलङ्करोति?
(सर्वे प्रणमन्ति।) मकरन्द:- (अञ्जलिमाधाय)
सुमित्रा- आर्यपुत्र! विपरीत फल की सूचना देने वाले कितने शकुनों पर ध्यान देंगे?
मकरन्द- प्रिये!
शकुन फल के विषय में सत्य सूचना दें अथवा न दें किन्तु चित्त में अशान्ति तो पहले उत्पन्न कर ही देते हैं।।४।।
और भीतरी शकुन तो मन ही होता है, तो आओ इस मन्दिर में प्रवेश कर देवताओं को प्रणाम करें, क्योंकि देवताओं के दर्शन से सम्मुख उपस्थित विपत्तियाँ भी दूर हो जाती हैं।
(सभी मन्दिर में प्रवेश करते हैं।) मकरन्द- ये देवाधिदेव सकल देवों के चक्रवर्ती नभिपुत्र भगवान् ऋषभदेव मन्दिर के मध्य भाग को किस प्रकार सुशोभित कर रहे हैं?
(सभी प्रणाम करते हैं।) मकरन्द- (हाथ जोड़कर) १. एतदारुह्य क।
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