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________________ १३६ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् चैत्यानि ध्वजचुम्बिताम्बरतलान्यश्वेभमुच्छङ्खलं, हाण्यद्भुतवैभवानि, विपणिः पण्यैरगण्यैर्घना। सञ्चारस्तु न चत्वरे न च गृहे स्त्रैणस्य पौंस्नस्य च, शङ्का-त्रास-वितर्क-विस्मयकरः कोऽयंप्रकारः पुरः?।।२।। कौमुदी- (सभयविस्मयम्) अज्ज मयरंद! ता किं नयरस्स मज्झं न पेक्खिदव्वं? (आर्य मकरन्द ! तावत् किं नगरस्य मध्यं न प्रेक्षितव्यम्?) मकरन्द:- मध्यमपि विलोकयिष्यामः। (सर्वे परिक्रामन्ति।) मकरन्द:- (सभयम्) स्फुरद् वामं चक्षुः, प्रतिमुहुरिदं सैष भुजगः स्फटाटोपी शुष्के विटपिनि विमुञ्चन् विषलवान्। खरश्चायं भूम्नाऽभिमुखमतिरुष्टः कटु रटन्, पुरस्तात् पश्चाद्वा विपदमतिगुर्वी दिशति नः।।३।। शङ्का, भय, वितर्क और विस्मयकारी यह कैसा नगर है? इसमें गगनचुम्बी ध्वजों वाले मन्दिर हैं, उच्छृङ्खल प्रकृति के हाथी-घोड़े हैं, अद्भुत वैभवशाली भवन हैं और बाजार असंख्य विक्रेय वस्तुओं से भरा पड़ा है, किन्तु चौराहों पर या घर कहीं पर भी स्त्री-पुरुषों का सञ्चार (गमनागमन) दिखायी नहीं पड़ रहा है।।२।। ___ कौमुदी- (भय एवं आश्चर्यपूर्वक) आर्य मकरन्द! तो क्या नगर का मध्य (भीतरी भाग) नहीं देखना चाहिए? मकरन्द- भीतरी भाग भी देखेंगे। (सभी घूमते हैं।) मकरन्द- (भयपूर्वक) फड़कती हुई बाईं आँख और सूखी डाल पर बारम्बार विषबूंद टपकाता हुआ यह फन फैलाया हुआ भयङ्कर साँप तथा नीचे मुख करके रेंकता हुआ यह गधा सामने या पीछे से आने वाली हमारी महान् विपत्ति की सूचना दे रहे हैं।।३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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