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________________ अष्टमोऽङ्कः १३५ पवित्रेण चरित्रेण पुनः साधूनप्यतिशेते। इयन्तं हि द्रविणसमूहमुपनतं परित्यक्तुं साधवोऽपि तपस्विनः, किमुत परजीवितापहारिणः पक्कणचारिणः? द्रविणं मुञ्चमानश्च हस्तमोचनपर्वणि। औचितीं निष्णबुद्धित्वमात्मनः प्रथयत्ययम्।।१।। (विमृश्य) प्रिये सुमित्रे! मातरं भ्रातरं च ते स्वनगरं प्रति प्रस्थापयन् वज्रवर्मा परं पुण्यमर्जितवान्। कौमुदी- सहि सुमित्ते! कत्थ ते पिउहरं? (सखि सुमित्रे ! कुत्र ते पितृगृहम्?) सुमित्रा- अलयउरनिवासिणो धणदेवस्स सत्यवाहस्स अहं धूआ विजयवम्मणा वंदिग्गाहेण आणीदा। (अचलपुरनिवासिनो धनदेवस्य सार्थवाहस्याहं पुत्री विजयवर्मणा बन्दिप्राहेणाऽऽनीता।) मकरन्द:- (पुरोऽवलोक्य साशङ्कम्) है। क्योंकि, इतनी अधिक मात्रा में प्राप्त धनसमूह के परित्याग के प्रति तो साधुजन भी अनासक्त (असमर्थ) हो जाते हैं, फिर दूसरों का जीवन हरने वाले भील (वज्रवर्मा) का तो कहना ही क्या? अपने हाथों से इस धनसमूह के अपहरण का सुअवसर सुलभ होने पर भी इसका परित्याग करने वाला यह (वज्रवर्मा) अपने आचरण के औचित्य और बुद्धिवैशद्य को प्रकट कर रहा है।।१।। (सोचकर) प्रिये सुमित्रे! तुम्हारे माता और भाई को अपने नगर वापस भेजकर वज्रवर्मा ने बहुत पुण्य अर्जित किया है। कौमुदी-सखि सुमित्रे! तुम्हारा पितृगृह कहाँ है? सुमित्रा- मैं अचलपुरवासी सार्थवाह धनदेव की पुत्री हूँ और विजयवर्मा मुझे बन्दी बनाकर यहाँ ले आया है। मकरन्द- (सामने देखकर आशङ्कापूर्वक) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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