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||अथ अष्टमोऽङ्कः।। (ततः प्रविशति मकरन्दः, कौमुदी, सुमित्रा च।) मकरन्द:- (विमृश्य) कोऽत्र भोः?
(प्रविश्य) पुरुषः- एशे चिष्टामि। आदिशेदु शस्तवाहे। (एष तिष्ठामि। आदिशतु सार्थवाहः।)
मकरन्द:- अरे मागध! इदानीं परिणतवया वर्तते दिवसः। ततो ब्रूहि गत्वा नरदत्तम् यथा-यावद वयमेकचक्राया नगर्याश्चैत्य-प्रासाद-प्राकाराऽऽरामरामणीयकं कौमुदी-सुमित्रयोरादर्शयामस्तावत् त्वया सार्थरक्षायां प्रयत्नो विधेयः, स्थविरश्च शम्बलं किमपि दत्वा रङ्गशालांप्रति प्रतिनिवर्तनीयः।
__(मागधो निष्क्रान्तः।) मकरन्द:- (विमृश्य) आर्ये कौमुदि! कुलक्रमेणैवायं वज्रवर्मा शबरः,
|| अष्टम अङ्क। (तत्पश्चात् मकरन्द, कौमुदी और सुमित्रा प्रवेश करते हैं।) मकरन्द-(सोचकर) अरे! यहाँ कौन है?
(प्रवेश कर) पुरुष-मैं हूँ। सार्थवाह! आदेश दें।
मकरन्द-अरे मागध! अब दिन ढल चुका है, अत: नरदत्त से जाकर कहो 'जब तक मैं कौमुदी एवं सुमित्रा को एकचक्रा नगरी के रमणीय मन्दिरों, भवनों, भित्तियों एवं उद्यानों के दर्शन कराता हूँ तब तक तुम सार्थ (व्यापारी दल) की सुरक्षा की व्यवस्था करो और स्थविर को कुछ मार्गव्यय देकर रङ्गशाला वापस भेज दो।'
(मागध निकल जाता है।) मकरन्द-(सोचकर) आर्ये कौमुदि! यह वज्रवर्मा केवल जन्म से ही शबर (भील) है, अपने पवित्र आचरण से तो यह साधुओं का भी अतिक्रमण कर रहा
१. एसो चिष्टामि। आदिशेदु सत्थवाहे क।
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