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सप्तमोऽङ्कः सुमित्रा- (अपवार्य कौमुदी प्रति) साहे! सत्थवाहं निरूविअ मे महतो हरिसपन्भारो वड्डदि, ता चिंतेहि किं कारणं?
(सखि! सार्थवाहं निरूप्य मे महान् हर्षप्राग्भारो वर्धते, तञ्चिन्तय किं कारणम् ?)
कौमुदी- सहि ! ममावि एवं। (सखि ! ममापि एवम् ।) पल्लीपति:- सार्थवाह ! कुतः समागतोऽसि? सार्थवाह:- साम्प्रतं सुवर्णद्वीपात्। सुमित्रा- (निरूप्य स्वगतम्)
अरि! गरुअत्तं खंधाणं अरिरि! वच्छत्थलस्स पिहुलत्तं। कटरि! थिरत्तं दिट्ठीऍ कटरि! बाहाण दीहत्त।।८।। (अरे ! गुरुत्वं स्कन्धयोः अरेरे ! वक्षःस्थलस्य पृथुलत्वम् । कटरि ! स्थिरत्वं दृष्ट्याः कटरि ! बाह्रोः दीर्घत्वम् ।।) पल्लीपति:- त्वमेकः सार्थाधिपतिः?
सुमित्रा-(दूसरी तरफ मुँह घुमाकर) सखि! सार्थवाह को देखकर मेरी प्रसन्नता अत्यन्त बढ़ती जा रही है, तो तुम सोचो (कि इसका) क्या कारण है?
कौमुदी-सखि! मेरी भी यही स्थिति है। पल्लीपति-सार्थवाह! कहाँ से आये हो? सार्थवाह- इस समय सुवर्णद्वीप से। सुमित्रा-(देखकर मन ही मन)
अरे! इसके कन्धों का गुरुत्व, अरे रे! इसकी छाती की चौड़ाई, हाय रे! इसकी दृष्टि की स्थिरता (गम्भीरता) और हाय रे! इसकी भुजाओं की विशालता।।८।।
पल्लीपति-तुम अकेले ही सार्थवाह हो?
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