SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२७ सप्तमोऽङ्कः सुमित्रा- (अपवार्य कौमुदी प्रति) साहे! सत्थवाहं निरूविअ मे महतो हरिसपन्भारो वड्डदि, ता चिंतेहि किं कारणं? (सखि! सार्थवाहं निरूप्य मे महान् हर्षप्राग्भारो वर्धते, तञ्चिन्तय किं कारणम् ?) कौमुदी- सहि ! ममावि एवं। (सखि ! ममापि एवम् ।) पल्लीपति:- सार्थवाह ! कुतः समागतोऽसि? सार्थवाह:- साम्प्रतं सुवर्णद्वीपात्। सुमित्रा- (निरूप्य स्वगतम्) अरि! गरुअत्तं खंधाणं अरिरि! वच्छत्थलस्स पिहुलत्तं। कटरि! थिरत्तं दिट्ठीऍ कटरि! बाहाण दीहत्त।।८।। (अरे ! गुरुत्वं स्कन्धयोः अरेरे ! वक्षःस्थलस्य पृथुलत्वम् । कटरि ! स्थिरत्वं दृष्ट्याः कटरि ! बाह्रोः दीर्घत्वम् ।।) पल्लीपति:- त्वमेकः सार्थाधिपतिः? सुमित्रा-(दूसरी तरफ मुँह घुमाकर) सखि! सार्थवाह को देखकर मेरी प्रसन्नता अत्यन्त बढ़ती जा रही है, तो तुम सोचो (कि इसका) क्या कारण है? कौमुदी-सखि! मेरी भी यही स्थिति है। पल्लीपति-सार्थवाह! कहाँ से आये हो? सार्थवाह- इस समय सुवर्णद्वीप से। सुमित्रा-(देखकर मन ही मन) अरे! इसके कन्धों का गुरुत्व, अरे रे! इसकी छाती की चौड़ाई, हाय रे! इसकी दृष्टि की स्थिरता (गम्भीरता) और हाय रे! इसकी भुजाओं की विशालता।।८।। पल्लीपति-तुम अकेले ही सार्थवाह हो? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy