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________________ १२६ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् (प्रविश्य) पुरुष:- भट्टा! दिट्ठिया एगो महंतो सत्यो संपत्तो। (भर्तः ! दिष्ट्या एको महान् सार्थः सम्प्राप्तः।) पल्लीपतिः- (सहर्षम्) अस्ति किमपि द्रविणम्? पुरुष:- कणयसंपुडाइयं पहूदं दविणमत्थि। (कनकसम्पुटादिकं प्रभूतं द्रविणमस्ति।) पल्लीपति:- सार्थवाहोऽपि सङ्गहीतः? पुरुष:- न केवलं संगिहीदो तुम्हाणं पासे आणीदो अत्थिा (न केवलं संगृहीतो युष्माकं पार्थे आनीतोऽस्ति।) ___ (ततः प्रविशति पदातिना विधृतबाहुः सार्थवाहः।) पल्लीपति:- (विलोक्य) यथाऽयं दर्शनीयाकृतिस्तथा जाने महापुरुषः कोऽपि। (प्रवेश कर) पुरुष-स्वामी! सौभाग्य से एक बड़ा (धनवान्) व्यापारी मिला है। पल्लीपति-उसके पास कुछ धन भी है?। पुरुष-स्वर्णपेटिका इत्यादि प्रभूत धन है। पल्लीपति-सार्थवाह भी पकड़ा गया? पुरुष- न केवल पकड़ा गया, अपितु आपके पास भी ले आया गया है। (तत्पश्चात् सैनिकों द्वारा पकड़ी हुई भुजाओं वाला व्यापारी प्रवेश करता है।) पल्लीपति-(देखकर) जिस प्रकार यह देखने में अतिसुन्दर है, उससे कोई महापुरुष प्रतीत होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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