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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् पल्लीपति:- अयं ते पिङ्गलः शम्बलं दास्यति। (पुनः साक्षेपं यमदण्डं प्रति) गृहाणैतं बालकम्। अतिकालो भवति। व्रजामः पल्लिकायाम्।
(यमदण्ड: प्रसभं रुदन्तं बालकमाकर्षति।) (बालकः प्रतिभयेन वृद्धायाः कण्ठमवलम्बते।)
(सर्वास्तारस्वरं रुदन्ति।) पिङ्गलक:- (वृद्धां यष्टिना प्रणिहत्य) मुञ्च बालकम्, अन्यथा त्वां मारयिष्यामि।
वृद्धा— मारेहि मं, तहावि न मिल्लिस्सं। (मारय माम्, तथापि न मोक्ष्यामि।) पल्लीपतिः- (स्वगतम्)
अस्मन् जगति महत्यपि न वेधसा किमपि वस्तु तद् घटितम्। अनिमित्तमित्रवृत्तेर्भवति यतो मातुरुपकारः।।६।।
पल्लीपति-यह पिङ्गलक तुम्हें मार्गव्यय देगा। (पुन: क्रोधपूर्वक यमदण्ड से) पकड़ लो इस बालक को। बहुत देर हो रही है, अब हम लोग बस्ती में वापस चलते हैं।
(यमदण्ड रोते हुए बालक को बलात् खींचता है।) (बालक भय से वृद्धा का गला पकड़ लेता है।)
(सभी जोर-जोर से रोतीं हैं।) पिङ्गलक-(वृद्धा को छड़ी से मारता हुआ) छोड़ो बालक को, अन्यथा तुमको मार डालूँगा।
पद्धा-मुझको मार डालो, फिर भी मैं नहीं छोडूंगी। पल्लीपति-(मन ही मन)
अतिविशाल इस संसार में विधाता ने ऐसी किसी वस्तु की रचना नहीं की, जिससे निःस्वार्थ प्रेम करने वाली माता का उपकार हो सके।।६।।
१. त्तचित्तवृ' के।
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