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सप्तमोऽङ्कः पल्लीपति:- तिष्ठतु, न वयं ग्रहीष्यामः, किन्तु किमप्येतदीयं द्रविणं प्रयच्छ।
स्थविर:- पल्लीश्वर! रत्नाकरभङ्गेन कान्दिशीका युष्मान् शरणमेताः प्रपन्नाः। साम्प्रतमेतासां शम्बलमपि नास्ति। ततः किमेतं बालकं गृहीत्वा करिष्यत? गृहीतोऽप्ययं मातरं विना विपत्स्यते।
यमदण्ड:- वयमपि द्रविणं विना विपद्यामहे, ततोऽस्मदीयामपि चिन्तां कामपि कुरु।
पल्लीपतिः- यत्रेयं नवयौवनाञ्चितवपुगंगाक्षी सार्थे भवति तत्र शम्बलकस्याप्यसम्भव इति न मे मनः प्रत्येति।
कौमुदी- संबलयं सव्वं पि तुम्हेहिं गहिद। अओ वरं सव्वहा कि पि नत्यि ।
(शम्बलकं सर्वमपि युष्माभिर्गृहीतम् । अतः परं सर्वथा किमपि नास्ति।)
पल्लीपति-ठीक है, हम नहीं पकड़ेंगे किन्तु इसके लिए हमको कुछ धन दो।
स्थविर-पल्लीश्वर! रत्नाकरदेश के नष्ट हो जाने के कारण भागे हुए ये लोग आपकी शरण में आये हैं। इस समय तो इनके पास मार्गव्यय भी नहीं है। तो इस बालक को पकड़ कर क्या करेंगे? क्योंकि पकड़े जाने पर भी तो यह माता के विना मर ही जायेगा।
यमदण्ड- हम भी तो धन के विना मर जायेंगे, अत: हमारी भी कुछ चिन्ता करो।
पल्लीपति-जहाँ यह नवयौवन से परिपूर्ण लावण्यमयी मृगनयनी (सुन्दरी स्त्री) हो, वहाँ मार्गव्यय भी न हो, यह मेरा मन नहीं मानता।
कौमुदी-सम्पूर्ण मार्गव्यय तो आपलोगों ने ले लिया। अब उससे अतिरिक्त हमारे पास कुछ भी नहीं है।
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