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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् वृद्धा- (सदैन्यम्) एस मह पुत्तओ, एदाओ दुवे वि मह पुत्तीओ। (एष मम पुत्रकः। एते द्वे अपि मम पुत्र्यौ।) पल्लीपतिः- कथं पदाचारया त्वयाऽयमियति वर्पनि समानीतः? वृद्धा- कंघेण आणीदो। (स्कन्धेन आनीतः।) पल्लीपति:- (यमदण्डं प्रति)
निसर्गसौहृदाज्ञातकायवाङ्मनसक्लमाः। बालाः कथं नु जीवेयुर्न भवेज्जननी यदि?।।५।।
____ (यमदण्ड: बालकं हस्ते गृहीत्वाऽऽकर्षति।) वृद्धा- पुत्त! पुत्त! मिल्हेहि एदं वरायं। (पुत्र! पुत्र! मुञ्च एतं वराकम्।)
सुमित्रा-(प्रणम्य पल्लीपतिं प्रति) ताद! अम्हाणं देसभंगेण दूरीभूदसयलकुडुंबगाणं एसो चेअ एगो जीविदालंबणं, ता चिट्ठदु एस वराओ।
(तात! अस्माकं देशभङ्गेन दूरीभूतसकलकुटुम्बकानामेष एव एको जीवितालम्बनम्। तत् तिष्ठत्वेष वराकः।)
वृद्धा-(दीनतापूर्वक) यह मेरा पुत्र है। ये दोनों भी मेरी पुत्रियाँ हैं। पल्लीपति-क्या तुम इसको पैदल ही इतनी दूर ले आयी? वद्धा-कन्धे पर बैठाकर लायी हूँ। पल्लीपति-(यमदण्ड से)
यदि माता न हो तो स्वभाव से ही स्नेही और शारीरिक, वाचिक और मानसिक पीड़ा को न समझ पाने वाले बालक कैसे जीवित रहे? ।।५।।
(यमदण्ड बालक को हाथ से पकड़कर खींचता है।) वृद्धा-पुत्र! पुत्र! इस बेचारे को छोड़ दो।
सुमित्रा-(प्रणाम करके पल्लीपति से) तात! अपना देश विनष्ट हो जाने के कारण सभी कुटुम्बजनों से वियुक्त हम लोगों के जीवन का यही एकमात्र आधार है, अत: इस बेचारे को छोड़ दिया जाय।
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