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________________ १२० कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् पल्लीपति:- (सनिर्वेदम्) नक्तं दिनं न शयनं, प्रकटा न चर्या, स्वैरं न चान्न-जल-वस्त्र-कलत्रभोगः। शङ्कानुजादपि सुतादपि दारतोऽपि, लोकस्तथापि कुरुते ननु चौर्यवृत्तिम्।।३।। यमदण्ड:- देव! ऐहिकाऽऽमुष्मिकान् क्लेशान् कुक्षिसौहित्यकाम्यया। स्वीकुर्वन्नस्ति दुर्मेधाः कोऽन्यस्तस्करतो जनः?।।४।। (पल्लीपतिः भ्रूसंज्ञया यमदण्डं प्रेरयति।) यमदण्ड:- (कृपाणमुद्यम्य साक्षेपम्) अरे वृद्ध! मुञ्च करण्डकम्। स्थविर:- (सदैन्यम्) गृहाण करण्डकम्। देहि मे प्राणभिक्षाम्। येनाऽहं जीवनात्मनः कुटुम्बकं पश्यामि। पल्लीपति-(विरक्तिपूर्वक) न रात-दिन सोने का अवसर मिलता है, न दिनचर्या नियमित होती है और न ही स्वेच्छया अन, जल, वस्त्र और स्त्री का भोग ही होता है, साथ ही भाई, पत्र और पत्नी ये सभी चरित्र पर सन्देह भी करते हैं, फिर भी व्यक्ति चौरकर्म करता ही है।।३।। यमदण्ड-देव! जो अपनी उदरपूर्ति की इच्छा से ऐहलौकिक और पारलौकिक दोनों दुःखों को स्वीकारता है, उस चोर की अपेक्षा अधिक दुर्बुद्धि वाला दूसरा मनुष्य कौन हो सकता है? ।।४।। (पल्लीपति भौंह के इशारे से यमदण्ड को प्रेरित करता है।) यमदण्ड-(तलवार तान कर) अरे वृद्ध! टोकरी छोड़ो। स्थविर-(दीनतापूर्वक) टोकरी लो और मुझे प्राणदान दो, जिससे मैं जीवित रहते हुए अपने कुटुम्बों को देख सकूँ। १. कृपाणमुद्दिश्य ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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