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सप्तमोऽङ्कः
११९ स्थविर:- (स्वगतम्) यथाऽयं तरलदृष्टिस्तथा जाने चौरप्रणिधिः। . (प्रकाशं साक्षेपम्) किं तेऽस्मद्गमनचिन्तया? व्रज यत्र चलितोऽसि।
सर्पकर्ण:- नूनमयं मां ज्ञातवान्। भवतु। पल्लीपतये गत्वा विज्ञपयामि। (इति विचिन्त्य शनैः शनैर्निष्क्रान्तः।)
स्थविर:- यदि मां तस्करा बन्धन्ति वा व्यापादयन्ति वा तदा बालकं गृहीत्वा सर्वाभिरपि पलायितव्यम्।
___ (नेपथ्ये) घलेष ले! घलेष, मालेघ ले! मालेध, वेढेध ले! वेढेध। (धरत रे! घरत, मारयत रे! मारयत, वेष्टयत रे! वेष्टयता) स्थविर:- हा! हताः स्मः। कथं तस्कराः समापतन्ति?
(वृद्धा अध: परिधानाञ्चलेन बालकं पिदधाति।)
(कौमुदी-सुमित्रे नेपथ्यानि पटावरणेन गोपयतः।) (ततः प्रविशति पल्लीपतिर्यमदण्ड-पिङ्गलक-सर्पकर्णादिकश्च परिवारः।)
स्थविर-(मन में) जिस प्रकार इसकी दृष्टि चञ्चल है उससे मुझे लगता है कि यह चोरों का गुप्तचर है। (प्रकट रूप से क्रोधपूर्वक) हम कहीं भी जायँ उससे तुम्हें क्या मतलब? जहाँ से आये हो, वहीं चले जाओ।
सर्पकर्ण- यह अवश्य मुझे पहचान गया है। अच्छा! जाकर पल्लीपति (मुखिया) को सूचना देता हूँ। (यह सोचकर धीरे-धीरे चला जाता है।)
स्थविर-यदि चोर मुझे बाँधते अथवा मार देते हैं, तो तुम सब बालक को लेकर यहाँ से भाग जाना।
(नेपथ्य में) पकड़ो रे! पकड़ो, मारो रे! मारो, घेर लो रे! घेर लो। स्थविर- हाय! मारे गये! क्या लुटेरे आ रहे हैं?
(वृद्धा साड़ी के आँचल से बालक को ढंक देती है।) (कौमुदी और सुमित्रा आभूषणों को वस्त्र के आवरण से छिपा लेती हैं।) (तत्पश्चात् पल्लीपति और यमदण्ड, पिङ्गलक, सर्पकर्ण आदि अनुचरगण
प्रवेश करते हैं)
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