SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् ततः सर्वाभिरपि सर्वतो दत्तदृष्टिभिः पिहितनेपथ्याभिर्वाचंयमाभिश्च त्वरिततरं गन्तव्यम् । ११८ बालक:- अम्ब! बुभुक्खिदो म्हि । (अम्ब ! बुभुक्षितोऽस्मि । ) - ――― (सर्वाः सभयं परिक्रामन्ति । ) बालक: स्थविरः- (सरोषं यष्टिमुद्यम्य) अरे ! तिष्ठ, मा रोदी:, अन्यथा कर्णावुत्पाटयिष्यामि | ( वृद्धा हस्तसंज्ञया बालकं वारयति । ) (तारस्वरं प्रलपन्) अम्ब ! अपूपं देहि मे । (बालकः सभयमास्ते । ) सर्पकर्ण: यथाऽयं भारभुग्नकन्धरः शनैः प्रचारी स्थविरस्तथा जाने सद्रविणोऽयं सार्थः । भवतु । स्थविरं पृच्छामि । ( उच्चैः स्वरम्) आर्य! क्व प्रस्थितोऽसि ? --- अतः सभी लोग सब तरफ ध्यान से देखते हुए छिपकर चुपचाप यहाँ से शीघ्र भाग चलें । Jain Education International (सभी भयपूर्वक घूमते हैं । ) बालक - माँ! मुझे भूख लगी है। ( वृद्धा हाथ के इशारे से बालक को मना करती है ।) बालक - (जोर से रोते हुए) माँ! मुझे मालपुआ (पूड़ा) दो । स्थविर - (क्रोधपूर्वक छड़ी उठाकर ) अरे ! चुप रहो, मत रोओ, अन्यथा कान उखाड़ लूँगा । ( बालक डर से शान्त हो जाता है | ) सर्पकर्ण - जिस प्रकार यह वृद्ध भार से कन्धा झुकाकर धीरे-धीरे चल रहा है, उससे प्रतीत होता है कि इस व्यापारी के पास ( प्रचुर ) धन है। अच्छा! इस वृद्ध से पूछता हूँ । (तेज आवाज में ) आर्य! आप कहाँ जा रहे हैं? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy