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|| अथ सप्तमोऽङ्कः ।।
(ततः प्रविशति सर्पकर्णः । ) छित्त्वा कण्ठमकुण्ठखड्गलतया चाटूनि सन्तन्वतो, लोकात् क्लेशशतार्जितं च सुलसद्गादयन्धलैर्गृह्यते । प्राणानां च पणेन तस्य निभृतं भोगः सदा सर्वतः,
साशङ्खैः स्वपरोपतापजननीं धिक् तस्कराणां स्थितिम् । । १ । ।
( पुनर्विमृश्य) आदिष्टोऽस्मि पल्लीपतिना सार्थस्य वा पान्थस्य वा कस्यापि गवेषणाय, तदहमेतं न्यग्रोधमारुह्य विलोकयामि । ( तथा कृत्वा विलोक्य च ) कथमयं दवीयस प्रदेशे महान् सार्थः समेति ? (पुनरन्यतोऽवलोक्य सहर्षम्) कथमेतानि कियन्त्यपि स्त्रीप्रायाणि मानुषाणि पल्ले: परिसरवर्तीन्येव ? तदुत्तीर्य निपुणमवलोकयामि । (इत्युत्तरणं नाटयति । )
सप्तम अङ्क
(तत्पश्चात् सर्पकर्ण प्रवेश करता है । )
सर्पकर्ण - (खिन्नतापूर्वक)
धिक्कार है चोरों के स्वयं और दूसरों को कष्ट पहुँचाने वाले जीवन को ! ये चोर चापलूसी करते हुए अत्यधिक लोभ से अन्धे होने के कारण अपने अचूक तलवार से लोगों की गर्दन काटकर उनके द्वारा नाना कष्ट सहकर अर्जित धन का अपहरण कर लेते और सर्वदा सब तरफ से भय की आशङ्का से युक्त होते हुए भी अपने प्राणों की बाजी लगाकर उस अपहृत धन का गुप्तरूपेण उपभोग करते हैं ।। १ ।।
(पुनः सोचकर) पल्लीपति (बस्ती के मुखिया) ने किसी व्यापारी या पथिक को खोजने का आदेश दिया है, अतः मैं इस बरगद के वृक्ष पर चढ़कर देखता हूँ। (वैसा करके और देखकर ) क्या यह कहीं दूर से कोई बड़ा सार्थ (व्यापारियों का दल) आ रहा है? (घुन: दूसरी तरफ देखकर हर्ष से ) क्या स्त्रियों जैसे प्रतीत हो रहे कुछ लोग बस्ती की सीमा के भीतर ही हैं? तो उतरकर ठीक से देखता हूँ। (यह कहकर उतरने का अभिनय करता है | )
१. न्यग्रोधमधिरुह्य ख ।
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