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________________ ११६ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् (ततः प्रविशति कौमुदी, सुमित्रा, स्कन्धकृतबालका वृद्धा, मूर्धकृतकरण्डकः स्थविरश्च । ) कौमुदी - अनंतरं कित्तिआई पि दिवसाइं अम्हे अमच्चस्स गेहे वसिआई । (अनन्तरं कियन्त्यपि दिवसानि वयम् अमात्यस्य गेहे उषिताः । ) सुमित्रा - तदो तदो ? ( ततस्तत: ? ) कौमुदी - अन्नया निसीढसमये केणावि पओअणेण कत्थ वि अमच्चेण मित्ताणंदो पेसिदो । (अन्यदा निशीथसमये केनापि प्रयोजनेन कुत्रापि अमात्येन मित्राणन्दः प्रेषितः । ) वृद्धा - ( सत्वरम्) तदो तदो? ( ततस्तत: ? ) कौमुदी - मह उवरिं अणुरायं जाणिय अमच्चस्स भारिआए एदं थविरं सहायं दाऊण करंडयं च समप्पिअ पभाए अहं पि नीहारिदा । (ममोपरि अनुरागं ज्ञात्वा अमात्यस्य भार्यया एतं स्थविरं सहायं दत्त्वा करण्डकं च समर्प्य प्रभातेऽहमपि निष्कासिता । ) (तत्पश्चात् कौमुदी, सुमित्रा, कन्धे पर बालक को बैठाई हुई वृद्धा एवं सिर पर टोकरी रखे हुए एक वृद्ध पुरुष प्रवेश करते हैं । ) कौमुदी - उसके पश्चात् हम लोग कई दिनों तक अमात्य के घर में रहे । सुमित्रा - उसके पश्चात् ? कौमुदी - एक रात मन्त्री ने किसी कार्यवश मित्रानन्द को कहीं भेज दिया । वृद्धा - ( शीघ्रतापूर्वक ) फिर उसके पश्चात् ? कौमुदी - मेरे प्रति (मन्त्री) के अनुराग को जानकर अमात्य की पत्नी ने इस वृद्ध को साथ करके और टोकरी देकर मुझे भी प्रातः काल घर से निकाल दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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