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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् निर्बन्येन पृच्छामि। (प्रकाशम्) महापुरुष! यत एव ते पवित्राणि पितृ-मित्राणि तत एवाकाण्डोपस्थिते मरणविड्वरे समुद्घोषणीयानि।
पुरुषः- आर्य! जिनदासो मे पिता, मित्रं मकरन्दो मैत्रेयश्च।
मैत्रेयः- हा भ्रात: मित्रवत्सल मित्रानन्द! कामिमां दुःस्थामवस्थामधिगतोऽसि?
(इत्यभिदधानः पुरुषं परिरभ्य तारस्वरं प्रलपति।) सर्वे- (ससम्भ्रमम्) आर्य आर्य मैत्रेय! किमिदम्? मैत्रेय:- मण्डलाधिनाथ! स एष मित्रं मे मित्रानन्दो यदर्थं यूयमभ्यर्थिताः।
विजयवर्मा (ससम्भ्रमं कृपाणेन स्वयं बन्धनानि त्रोटयति। पुन: सविनयम्) महापुरुष! क्षमस्व यदस्माभिरज्ञातसम्बन्धैरपराद्धम्।
पुरुषः- ममैव कर्माण्यत्रापराध्यन्ति, न यूयम्।
जिनदास से सम्बन्धित कोई हो, अत: इससे आग्रहपूर्वक पूछता हूँ। (प्रकटरूप से) महापुरुष! क्योंकि तुम्हारे माता-पिता और मित्रगण श्रेष्ठ हैं, इसीलिए अप्रत्याशितरूप से उपस्थित मृत्युरूप महान् सङ्कट के समय तुमको उनका नाम अवश्य लेना चाहिए।
पुरुष-आर्य! जिनदास मेरे पिता और मकरन्द एवं मैत्रेय मेरे मित्र हैं। मैत्रेय-हाय भाई मित्रवत्सल मित्रानन्द! किस दुर्दशा को प्राप्त हो चुके हो! (यह कहता हुआ पुरुष को गले लगाकर जोर-जोर से रोता है।) सभी-(घबड़ाहट सहित) आर्य आर्य मैत्रेय! यह क्या है?
मैत्रेय-मण्डलाधिनाथ! यही है वो मेरा मित्र मित्रानन्द, जिसको खोजने के लिए मैंने आपसे प्रार्थना की थी।
विजयवर्मा-(शीघ्रतापूर्वक स्वयं तलवार से बन्धनों को काटता है। पुन: विनयपूर्वक) महापुरुष! मैत्रेय के साथ आपके सम्बन्ध से अनभिज्ञ हम लोगों द्वारा जो अपराध हुआ, उसको क्षमा करें।
पुरुष- यह मेरे कर्मों का ही दोष है, आपका नहीं।
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