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________________ १११ 'षष्ठोऽङ्कः (प्रविश्य) पुरुष:- एषोऽस्मि। विजयवर्मा- अरे मदनक! शिथिलय बन्धनानि, पायय शिशिरमम्भः। (मदनकस्तथा करोति।) पुरुष:- आर्य! कौतुकमङ्गलनगरजन्मा वैदेशिकोऽहम्। मैत्रेयः- (स्वगतम्) कौतुकमङ्गलनगरजन्मेत्यस्ति नः पक्षपातः। भवतु तावत्। (प्रकाशम्) कौतुकमङ्गलनगरे कस्ते पिता?, किं ते मित्रम्? पुरुषः- (निःश्वस्य) आर्य! कृतमिदानीमेतस्मित्रिलोकीत्रपाप्ररोहैकहेतौ पशुसमुचिते मरणपर्वणि कुलाचारपवित्राणां पितृ-मित्राणां प्रकाशनेन, न मे पितरौ, न मे मित्राणि, किमुताहमेकाकी गगनगर्भादिव पतितः। मैत्रेयः- (स्वगतम्) महाकुलप्रसूतः खल्वयम्, महासत्त्वप्रकृतिश्च कोऽपि। (पुनर्विमृश्य) अपि नामायं कोऽपि जिनदासवर्गीणः सम्भवेत्, ततो (प्रवेश कर) पुरुष-मैं हूँ। विजयवर्मा-अरे मदनक! इसके बन्धनों को ढीला करो तथा इसको ठण्डा पानी पिलाओ। ____ (मदनक वैसा ही करता है।) पुरुष-आर्य! मैं कौतुकमङ्गल नामक नगर में उत्पन्न परदेशी हूँ। मैत्रेय-(मन में) कौतुकमङ्गल नगर में जन्म हुआ है- यह सुनकर इसके प्रति मेरी सहानुभूति हो रही है। अच्छा! (प्रकट रूप से) कौतुकमङ्गलनगर में तुम्हारे. पिता कौन है? कौन वहाँ तुम्हारा मित्र है? पुरुष-(निःश्वास लेकर) आर्य! तीनों लोकों में लज्जास्पद इस पशुतुल्य मृत्यु के अवसर पर पवित्र कुल और आचरण वाले माता-पिता और मित्रों का नाम लेना व्यर्थ है। न मेरे माता-पिता हैं, न मित्र है। क्या कहूँ? मैं तो मानो अकेले ही आकाश के गर्भ से पृथ्वी पर गिरा हूँ। मैत्रेय- (मन में) यह अवश्य ही कोई महान् कुल में उत्पन्न और अत्यन्त सात्त्विक स्वभाव वाला व्यक्ति है। (पुन: सोचकर) सम्भव है कि यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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