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'षष्ठोऽङ्कः
(प्रविश्य) पुरुष:- एषोऽस्मि। विजयवर्मा- अरे मदनक! शिथिलय बन्धनानि, पायय शिशिरमम्भः।
(मदनकस्तथा करोति।) पुरुष:- आर्य! कौतुकमङ्गलनगरजन्मा वैदेशिकोऽहम्।
मैत्रेयः- (स्वगतम्) कौतुकमङ्गलनगरजन्मेत्यस्ति नः पक्षपातः। भवतु तावत्। (प्रकाशम्) कौतुकमङ्गलनगरे कस्ते पिता?, किं ते मित्रम्?
पुरुषः- (निःश्वस्य) आर्य! कृतमिदानीमेतस्मित्रिलोकीत्रपाप्ररोहैकहेतौ पशुसमुचिते मरणपर्वणि कुलाचारपवित्राणां पितृ-मित्राणां प्रकाशनेन, न मे पितरौ, न मे मित्राणि, किमुताहमेकाकी गगनगर्भादिव पतितः।
मैत्रेयः- (स्वगतम्) महाकुलप्रसूतः खल्वयम्, महासत्त्वप्रकृतिश्च कोऽपि। (पुनर्विमृश्य) अपि नामायं कोऽपि जिनदासवर्गीणः सम्भवेत्, ततो
(प्रवेश कर) पुरुष-मैं हूँ।
विजयवर्मा-अरे मदनक! इसके बन्धनों को ढीला करो तथा इसको ठण्डा पानी पिलाओ।
____ (मदनक वैसा ही करता है।) पुरुष-आर्य! मैं कौतुकमङ्गल नामक नगर में उत्पन्न परदेशी हूँ।
मैत्रेय-(मन में) कौतुकमङ्गल नगर में जन्म हुआ है- यह सुनकर इसके प्रति मेरी सहानुभूति हो रही है। अच्छा! (प्रकट रूप से) कौतुकमङ्गलनगर में तुम्हारे. पिता कौन है? कौन वहाँ तुम्हारा मित्र है?
पुरुष-(निःश्वास लेकर) आर्य! तीनों लोकों में लज्जास्पद इस पशुतुल्य मृत्यु के अवसर पर पवित्र कुल और आचरण वाले माता-पिता और मित्रों का नाम लेना व्यर्थ है। न मेरे माता-पिता हैं, न मित्र है। क्या कहूँ? मैं तो मानो अकेले ही आकाश के गर्भ से पृथ्वी पर गिरा हूँ।
मैत्रेय- (मन में) यह अवश्य ही कोई महान् कुल में उत्पन्न और अत्यन्त सात्त्विक स्वभाव वाला व्यक्ति है। (पुन: सोचकर) सम्भव है कि यह
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