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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् एतावतः पुनरर्थस्य का कथा? किञ्च
एकेनैवाधुनाऽस्माकमेतेन ननु कर्मणा।
मन्त्री यक्षश्च सन्तोषपरिपोषं प्रयास्यति।।१५।। (पुनः कपिञ्जलं प्रति) यदयं दुर्मुखः समर्पयति तत् सुगृहीतं कुरु। (पुनः कर्णे-एवमेव।)
(सदुर्मुखः कपिञ्जलो निष्क्रान्तः।)
(नेपथ्ये) भो भो उपवनचारिणः! सम्पन्ने निःशेषेऽप्युपहारोपकरणे किमद्यापि विलम्बते रत्नाकराधिनाथ:?
_ विजयवर्मा- (आकर्ण्य मैत्रेयं प्रति) यूयमागच्छत यक्षायतनम्। समीपीभूय कारयतोपहारकर्म।
(सर्वे यक्षायतनमुपसर्पन्ति।) विजयवर्मा- (मैत्रेयं प्रति) सोऽयमस्माकं कुलदेवता लोहितपाणिर्य
इतनी छोटी सी बात का तो कहना ही क्या ?
अब हमारे इस एक ही बलिकर्म से मन्त्री कामरति और यक्षाधिनाथ दोनों पूर्ण सन्तुष्ट हो जायेंगे।।१५।।
(पुन: कपिञ्जल से) यह दुर्मुख जो दे रहा है, वह ग्रहण कर लो। (पुनः कान में- ऐसा ही करो) (दुर्मुख के साथ कपिञ्जल भी निकल जाता है।)
(नेपथ्य में) हे हे उपवन में विचरण करने वालो! बलि की समस्त सामग्री उपस्थित हो जाने पर भी रत्नाकरनरेश अब विलम्ब क्यों कर रहे हैं?
विजयवर्मा-(सुनकर मैत्रेय से) आप भी यक्षमन्दिर में चलिए और पास जाकर बलिकर्म सम्पन्न करवाइये।
(सभी यक्षमन्दिर की तरफ जाते हैं।) विजयवर्मा-(मैत्रेय से) यही हैं हमारे कुलदेवता यक्षराज लोहितपाणि।
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