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षष्ठोऽङ्कः क्षाधिनाथः। (पुनः सखेदम्) कथं बहलघूपधूमध्यामलितलोचनैरस्माभिर्यक्षाधिनाथस्यापि मुखाम्भोजं न विलोक्यते?
(प्रविश्य) कपिञ्जल:- देव! सोऽयं नियन्त्रितभुजः कृताशेषवध्यमण्डनः पुरो लोहितपाणेरुपहारपुरुषः।
___ (ततः प्रविशति यथानिर्दिष्टः पुरुषः।) ___ विजयवर्मा- (मैत्रेयं प्रति) भगवन्! कुरुतास्योपहारपुरुषस्य प्रोङ्क्षणादिकां क्रियाम्। प्रयच्छत पारलौकिकं कमप्युपदेशम्।
(मैत्रेय: प्रोङ्क्षणादिकं कृत्वा धूपपात्रं दर्शयति।) विजयवर्मा- कोऽत्र भोः कृपाणधरेषु?
(प्रविश्य पुरुष: कृपाणमर्पयति।) विजयवर्मा— (कृपाणमाकृष्य) रे ! स्मर किमपि दैवतम्। अस्तमयति परमतस्ते जीवितकथा। (पुनः खेदसहित) अगरबत्ती के अत्यधिक धुएँ से रुआंसे नेत्रों से हम लोगों को यक्षराज का मुखकमल भी दिखलाई क्यों नहीं पड़ रहा है? ।
(प्रवेश करके) कपिञ्जल:-देव! यक्षराज लोहितपाणि का बँधी हुई भुजाओं वाला तथा बलि हेतु पूर्णरूपेण सुसज्जित बलिपुरुष आपके सम्मुख उपस्थित है।
__ (तत्पश्चात् यथानिर्दिष्ट पुरुष प्रवेश करता है।) विजयवर्मा-(मैत्रेय से) भगवन्! इस बलिपुरुष की अभिमन्त्रणादि क्रिया सम्पन्न करें और कोई परलोकोपयोगी उपदेश दें।
(मैत्रेय अभिमन्त्रणादि कार्य सम्पन्न करके धूपपात्र दिखाता है।) विजयवर्मा-अरे! यहाँ कोई कृपाणधारी है?
(पुरुष प्रवेश करके कृपाण देता है।) विजयवर्मा-(तलवार तानकर) रे पुरुष! किसी देवता का स्मरण कर। क्योंकि अब तेरी जीवनलीला समाप्त हो रही है। १-२. प्रेक्षणादिकां क।
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