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षष्ठोऽङ्कः
१०७ विजयवर्मा- क्रूरशास्त्रप्रतारितैरस्माभिर्योऽयमेकः प्रतिज्ञातो विधिः स प्रमाणमस्तु । अतः परं पुनर्यदभिधास्यते तदनुष्ठास्यामः।
(प्रविश्य) प्रतीहार:- देव ! अमात्येन कामरतिना प्रेषितः पुरुषो द्वारि वर्तते। विजयवर्मा- (साशङ्कम्) शीघ्रं प्रवेश्यताम्।
___ (प्रविश्य पुरुषः प्रणम्य लेखमर्पयति।) सुनन्द:- (गृहीत्वा वाचयति। स्वस्ति, रङ्गशालातो महामात्यः श्रीकामरतिमण्डलेश्वरं विजयवर्माणं सम्बोध्य कार्यमादिशति । यथा-यदि मदीयं कमप्युपकारलेशं स्मरसि तदा यदयमषडक्षीणं किमपि विज्ञपयति सन्देशहरो दुर्मुखस्तदचिरादतिनिगूढमादधीथा इति।। विजयवर्मा- दुर्मुख! कथय किमपि कर्णे यदमात्यः समादिष्टवान्।
(दुर्मुख उत्थाय कर्णे-एवमेव।) विजयवर्मा- कामरतिवचसा वयमात्मीयं शिरोऽपि समर्पयामः।
विजयवर्मा-क्रूर शास्त्र द्वारा भ्रमित हमारे द्वारा प्रतिज्ञात यह एक (बलि) कार्य सम्पन्न हो जाये। इसके बाद आप जो कहेंगे हम वही करेंगे।
(प्रवेश कर) प्रतीहार-देव! अमात्य कामरति द्वारा भेजा गया पुरुष द्वार पर खड़ा है। विजयवर्मा-(आशङ्कापूर्वक) शीघ्र अन्दर ले आओ।
(पुरुष प्रवेश कर और प्रणाम करके लेख प्रदान करता है।)
सुनन्द-(लेकर पढ़ता है) कल्याण हो, रङ्गशाला नगरी से महामात्य श्री कामरति मण्डलेश्वर विजयवर्मा को सम्बोधित कर आदेश देते हैं कि 'यदि मेरे थोड़े से भी उपकार का स्मरण करते हो, तो यह सन्देशवाहक दुर्मुख जो कुछ भी गुप्तनिर्देश देता है उसका शीघ्र गुप्तरीति से पालन करो।' विजयवर्मा-दुर्मुख! अमात्य ने जो कुछ भी कहा है, वह मेरे कान में कहो।
(दुर्मुख उठकर कान में ऐसा ही कहा है।) विजयवर्मा-कामरति के कहने पर तो मैं अपना शिर भी समर्पित कर दूँ,
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