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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम्
(प्रविश्य) .. कपिञ्जल:- देव ! सर्वमपि प्रगुणं पूजोपकरणम्, किमुतोपहारपुरुषः कथमपि न सङ्कटितः।
विजयवर्मा-(सविषादम्) सुनन्द! असम्पादितोपयाचितानामस्माकमुपस्पर्शनमात्रमप्यनुचितम्। तद् विचिन्तय कमप्युपहारसाटनोपायम्। मैत्रेय:
पुण्यप्रसूतजन्मानश्चण्डालव्यालसङ्गताम्।
मांस-रक्तमयीं देवाः किं बलिं स्पृहयालवः?।।१३। ततः कोऽयं भवद्भिर्विचारबन्थ्यमनसां दुर्मेधसां पन्थाः समुपास्यते? अपि च
अक्रूरं श्रेयसे कर्म क्रूरमश्रेयसे पुनः। इति सिद्धे पथि क्रूरं श्रेयसे स्पृशतां भ्रमः।।१४।।
(प्रवेश कर) कपिञ्जल-देव! पूजासामग्री तैयार है, किन्तु बलिपुरुष तो किसी भी प्रकार नहीं मिला।
विजयवर्मा-(दुःखपूर्वक) सुनन्द! मनौती पूरा किये विना तो हमारा आचमन करना भी अनुचित है, अत: बलिपुरुष को प्राप्त करने का कोई उपाय सोचो।
मैत्रेय
पुण्यबल से उत्पन्न देवगण क्या चाण्डाल और हिंस्र पशुओं के योग्य मांस-रक्तमयी बलि को ग्रहण करने के इच्छुक होते हैं? (अर्थात् नहीं होते।)।।१३।।
तो क्यों आप लोग विचारशून्य मन वाले मूों के पथ का अनुसरण कर रहे हैं? और भी
दूसरों को कष्ट न देने वाले सत्कर्म का फल शुभ होता है, जबकि दूसरों को कष्ट देने वाले असत्कर्म का फल अशुभ होता है। इस तरह की व्यवस्था के शास्त्रसिद्ध होने पर भी जो लोग शुभ फल की प्राप्ति हेतु असत्कर्म करते हैं वे भ्रान्त हैं।।१४।। १. सङ्घटते ख।
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