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षष्ठोऽङ्कः
१०५ माम्। असञ्जातपाणिग्रहणामेतां परिणयत यूयम्।
मैत्रेय:- महामण्डलेश्वर ! द्विजातिरहमनया सह विजातिः, मित्रानन्दः पुनः सजातिः, यदि सटिष्यते तदा परिणेष्यते। विजयवर्मा- यदभिरुचितं भवतां तदस्तु। (पुनरञ्जलिं बवा) आक्रुष्टाः स्थ यदुच्चकैः कटुवचोवीचीभिरत्युद्भटं
बब्वा यत् प्रहताः स्थ यष्टिभिरटच्चारार्थिभिः पत्तिभिः। अस्माभिः प्रतिपक्षरोषपरुषैः क्षिप्ताः स्थ यनिष्ठुरं, तद् यूयंसहत क्रुधोहि भिदुराः पाल्येषु पुण्यात्मनाम्।।१२।।
(मैत्रेयः सलज्जमधोमुखो भवति।) _ विजयवर्मा- (विमृश्य) सुनन्द ! कोऽयं यक्षाधिराजस्योपहारविधेविलम्बः?
हूँ। अत: आप इस अविवाहिता से विवाह करके मुझको अनुगृहीत करें।
मैत्रेय- महामण्डलेश्वर! मैं ब्राह्मण तो इसके लिए विजातीय हूँ, किन्तु मित्रानन्द सजातीय है। यदि वह मिलेगा तो इससे विवाह कर लेगा।
विजयवर्मा-आपकी जैसी इच्छा वैसा ही हो। (पुनः हाथ जोड़कर)
तीक्ष्ण कटु अपशब्दों द्वारा जो आपको अपमानित किया गया था, उचक्कों को पकड़ने वाले सैनिकों ने जो बाँधकर छड़ी से आपकी पिटाई की थी और शत्रु समझकर क्रोधावेश के कारण मैंने जो आपको निर्दयतापूर्वक धकियाया था, उन सबके लिए आप क्षमा करें, क्योंकि अपने अधीनस्थजनों के प्रति महापुरुषों का क्रोध तो क्षणभङ्गुर ही होता है।।१२।।
(मैत्रेय लज्जा से मुख नीचे झुका लेता है।) विजयवर्मा-(सोचकर) सुनन्द! यक्षाधिराज के बलिकर्म में यह विलम्ब क्यों?
१. त्यद्भुतं का २. विधिविलम्बः का
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