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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् विजयवर्मा- अरे तरल! समादिश मन्त्रिणं यथा मित्रानन्दनामानं वणिजं क्वचिदपि सिंहलाभ्यन्तरे गवेषयित्वा विज्ञपय।
(पुरुषो निष्क्रान्तः।) विजयवर्मा- (विमृश्य) कोऽत्र भोः?
(प्रविश्य) कञ्चुकी- एसो म्हि। (एषोऽस्मि) विजयवर्मा–कञ्चुकिन्! वत्सां सुमित्रां कन्यकान्तःपुरादाकारय।
(कञ्चकी निष्क्रान्तः।)
(प्रविश्य सुमित्रा सविनयं प्रणमति।) विजयवर्मा- आर्य मैत्रेय! इयमस्माभिर्विजययात्रागतैः प्रतिपन्थिनगराद् बन्दीकत्य समातृ-भ्रातृका वणिक्पुत्री समानीता। लजा-विनयादिभिश्च कुल. पुत्रिकोचितैर्गुणैरावर्जितैर्दृष्टा च स्वपुत्रीनिर्विशेषेण गौरवविशेषेण। तदनुगृहणीत
विजयवर्मा-अरे तरल! मन्त्री को आदेश दो कि मित्रानन्द नामक वणिक् को सिंहलद्वीप में कहीं से भी खोजकर मुझे सूचित करे।
(पुरुष निकल जाता है।) विजयवर्मा-(सोचकर) अरे! यहाँ कौन है ?
(प्रवेश कर) कञ्चकी-मैं हूँ। विजयवर्मा-कञ्चुकिन्! पुत्री सुमित्रा को कन्यान्त:पुर से बुलाओ।
(कञ्चकी निकल जाता है।) (प्रवेश करके सुमित्रा विनयपूर्वक प्रणाम करती है।) विजयवर्मा-आर्य मैत्रेय! विजययात्रा पर निकले हुए हम लोग शत्रु के नगर से इस वणिक्पुत्री सुमित्रा को माता और भाई के साथ बन्दी बनाकर ले आये। लज्जा, विनय आदि कुलपुत्रिकोचित गुणों से युक्त इसको मैं अपनी पुत्री के समान समझता १. विजययात्रां गतैः ख।
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